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सरस्वती
[भाग ३६
किसी के मुँह से बात न निकली। राजेन्द्र नीरव, स्तब्ध, मलिन मस्तक उठाकर कुण्ठवि की ओर ताका । कैसी सुन्दर, प्रशान्त उज्ज्वल और निस्पन्द था। सारा आकाश घने काले मेघ से ढंक गया। दृष्टि थी ! दृष्टि क्या थी, मानो जगमगाते हुए दो तारे थे। कुण्ठवि की
ओर देख लेने के बाद एक बार सभा की ओर ताककर विमलादित्य विमलादित्य उस दिन रात को चिन्ता में मग्न था। कुण्ठवि अब ने गर्वमय स्वर में कहा-सम्राट ! अपराध मेरा है । राजकुमारी का नहीं आती ! वीणा अब उस तरह नहीं बजती। हतभाग्य बन्दी ने नहीं। उसे क्षमा कर दीजिए। सारी रात जाग कर ही काटी थी। प्रातःकाल की स्निग्ध और शीतल कुण्ठवि ने कहा-पिता, राजाधिराज सम्राट , बन्दी चालुक्यराज वायु लगने पर उसे जरा-सी तन्द्रा आगई। इतने में एकाएक झनझना ने कोई अपराध नहीं किया है। अपराधिनी मैं हूँ। मुझे दण्ड दीजिए, कर उसके कमरे का द्वार खुल गया। चकित होकर उसने देखा कि विमलादित्य को क्षमा कर दीजिए। कतार के कतार सैनिक चले आ रहे हैं। उन सबके हाथ में नंगी राजराजा ने एक विकट . हँसी हँसकर कहा-चालुक्यराज तलवारें हैं। बाद को-पहले एक दिन जिस प्रकार वह बन्दी के विमलादित्य, तुम्हारे लिए मैं प्राणदण्ड का आदेश करता हूँ। रूप में लाया गया था, ठीक वैसे ही सैनिक लोग कौतूहल से अभिभूत सभामण्डप के सभी लोग एक साथ ही हाय हाय करने लगे। जनता के बीच से उसे लेकर राजसभा को गये।
निभीक विमलादित्य के प्रशान्त मुखमण्डल पर हँसी की एक रेखा उस दिन राजसभा में बड़ी भीड़ थी। राजा के मंत्री, पार्षद उदित हो आई। तथा नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति उन्हें घेरे बैठे थे। उसी समय बन्दी राजराजा ने फिर कहा-मुनो कुण्ठवि, तुम्हारे प्रति मेरा आदेश विमलादित्य को लिये पहरेदार लोग राजसभा में उपस्थित हुए। है निर्वासन का। रक्षकों का दल हाथ में नंगी तलवारें लिये हुए उसे घेर कर खड़ा हो कुण्ठवि हँसी । हँसकर जेब से वह छुरा निकालने का प्रयत्न गया। एक ओर विमलादित्य खड़ा था और दूसरी ओर राजकुमारी करने लगी, किन्तु छुरा उसमें नहीं था, इससे वह मूच्छित होकर वहीं कुण्ठवि । वह भी स्त्री पहरेदारों से परिवेष्टिता थी।
गिर पड़ी। सम्राट का निर्णय सुनने के लिए सभी लोग गर्दन उठाये प्रतीक्षा कर रहे थे। राजराजा ने कहा-एक सुन्दर राजा को बन्दी करने के हाँ, प्राणदण्ड हुआ। एक शुभ मुहूर्त में नृत्य-गीत और उत्सव कारण आज मुझे अपनी कन्या का परित्याग करना पड़ रहा है। के साथ चालुक्यराज विमलादित्य ने प्राणदण्ट के रूप में कुण्ठवि को मंत्रिगण, यदि मैं पहले ही इस हतभाग्य बन्दी का मस्तक तीक्ष्ण प्राप्त कर लिया और कुण्ठवि का चिर-निर्वासन हुआ विमलादित्य के तलवार के आघात से शरीर से पृथक कर देता तो कुण्ठवि को हृदय-राज्य में । राजराजा ने कन्या और दामाद को दहेज़ के रूप में इसकी रूपराशि पर मुग्ध होने का अवसर ही न मिलता। आज मैं वेंगी का राज्य दिया। उस अनुचित विलम्ब का प्रतीकार करूँगा।
विमलादित्य ने राजराजा को पद-धूलि ग्रहण करके कहा-मैंने सभा के मध्यस्थल से होकर हा हा करता हुअा हँसा का एक आज जो अमूल्य रत्न प्राप्त किया है, उसकी तुलना में गी का राज्य अदृहास.निकल गया।
प्रेम ने विमलादित्य को साहसी बना दिया था। उसने एक बार राजराजा हँसने लगे।
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