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संख्या ६ ]
माला देखने का आनंद
कहाँ मिलनेवाला था, और
इसी लिए साथी इन्तज़ार
कर रहे थे कि शायद बादल
हट जायँ और कूटारोहण
का मज़ा आ जाय । किन्तु
वह होनेवाली बात न थी। हमने नाश्ता किया। पाथेय साथ बाँध दिया गया। भोजन, बिस्तरा आदि सबके लिए २ येन् देने पड़े ।
७ बजे चले, कूट आधा मील से अधिक दूर नहीं था । चढ़ाई भी बहुत मुश्किल नहीं थी। आध घंटे से कम में ही ऊपर पहुँच गये। शिखर के बिलकुल
कोरिया का वज्रपर्वत
पास सोडा, मिठाई, फल आदि की दुकान है। पास
में यात्रियों के ठहरने का एक मकान था, जिसकी टीन की छत एक ही दो दिन पूर्व बड़ी सफाई से उलटकर बाहर रख दी गई थी।
की नोक पर तो हम चढ़ गये, किन्तु दस गज़ से आगे कुछ कूट दिखाई नहीं पड़ता था । हमारे ज़िद करने पर बूँदें कुछ कड़ी हो गई। भागकर दूकान के भीतर पनाह ली।
साथी लोग एक बार उठकर बादलों के पर्दे के पीछे सूर्य की सफेदी देखकर फिर बैठ गये । चंद मिनटों के बाद हताश होकर चलना पड़ा।
अब तक हमारी यात्रा बाहरी कोड़-गो में हुई थी, किन्तु अब भीतरी कोगो में उतरना था। कुछ दूर ढलुया पथ देखकर अनुमान हुआ था, पेट का पानी हिले बिना ही उतर चलेंगे। किन्तु यह ग़लत ख़याल कुछ ही मिनटों तक रहा। बाईं ओर मुड़े, और देखा, अरे ! यह तो खड़ी उतराई है। साथियों ने उतरते हुए बतलाया - यह सोने रूपे की सीढ़ी है। शायद बहुत खड़ी सोने की और कम खड़ी रूपे की। एक घंटा उतरने पर देखा, कितने ही स्त्री-पुरुष ऊपर की ओर जा रहे है। अपने राम तक़दीर मना रहे थे अच्छा हुआ जो बाहर से भीतर की ओर चल रहे हैं, नहीं तो इस चढ़ाई में छठी का दूध याद आ जाता । प्रायः सारी कठिन उतराई उतर आने पर देखा, कुछ कोरियन सम्भ्रान्त महिलायें ऊपर जा रही हैं। उनमें एक-दो दस वर्ष पूर्व के पेरिस - फैशन में ज़र्क- बर्क़ थीं; और उनके पीछे एक साठ वर्ष की बुढ़िया एक फैशनेबुल तरुणी का हाथ पकड़े ऊपर की ओर घसीटी
[कोङ् गोसान्–अवलोकितेश्वर (कन्नन्) शिखर ]
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जा रही थी। भाषा मालूम न थी, नहीं तो कहना चाहता था- अरे डोकरी ! क्यों मरने जा रही है ? अभी तो चढ़ाई का श्रीगणेश ही हुआ है 1
बूँदें ऊपर ही भर भी
उतराई में नहीं हरे वृक्षों की छाया में हम चलते गये। दस बजने के क़रीब म्योकिश्शो पहुँचे। यहाँ एक पर्वतकक्ष में ५० फुट ऊँची पद्मासनासीन बुद्ध मूर्ति खुदी हुई है। इसका आसन ही ३० फुट ऊंचा है। कला की दृष्टि से अच्छी तो नहीं कही जा सकती, किन्तु को गो सान् की यह सबसे बड़ी शिलोत्कीर्ण मूर्ति है। किसी समय यहाँ मन्दिर रहा होगा, किन्तु जब बौद्ध-धर्म के बुरे दिन आये तब वह मठ उजड़ गया। अब सामने चबूतरा-सा है, जिसकी मरम्मत होती रहती है। किसी ने यहाँ पत्थर की एक लालटेन लगा दी है।
कुछ समय और उतरने पर हम मक-इन् ( महायान-मठ) के सामने पहुँचे। रास्ता छोड़कर ५० गज़ ऊपर बढ़ने पर मठ मिला। मठ की सभी इमारतें नई हैं, और सभी साफ़-सुथरी तथा अच्छी अवस्था में है। मितु भी बगले के पर जैसे सफेद कपड़े पहने थे। यह सब देखने से मालूम हुआ कि कोरिया में बौद्ध धर्म की फिर जाग्रति हो रही है। इस मठ में ३० भिक्षु रहते हैं। और उतरते नदी तट पर एक जापानी भोजनालय मिला। नदी पार कुछ ऊपर फुतोकुत्सु का बौद्धमठ है। इसका एक देवल एक चट्टान की छोर पर बना है, और उसके
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