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स्वर्ग
एक
कोना
लेखिका, श्रीमती महादेवी वर्मा
एम० ए०
[शिकारा] श्रीमती वर्मा जी काश्मीर गई थीं। उसे उन्होंने 'स्वर्ग का एक कोना' बताकर जिस कवित्वपूर्ण भाषा में उसका इस लेख में चित्रण किया है, आशा है, वह भावप्रवण पाठकों को अधिक रोचक प्रतीत होगा।
स सरल कुटिल मार्ग के के कारण बादलों से बने घेरे-जैसा जान पड़ता था। वे दोनों ओर, अपने कर्त्तव्य पर्वत अविरल और निरन्तर होने पर भी इतनी दूर की गुरुता से निस्तब्ध थे कि धूप में जगमगाती असंख्य चाँदी-सी रेखाओं प्रहरी-जैसे खड़े हुए, के समूह के अतिरिक्त उनमें और कोई पर्वत का लक्षण आकाश में भी धरातल के दिखाई न देता था । जान पड़ता था किसी चित्रकार समान मार्ग बना देनेवाले ने अपने आलस्य के क्षणों में रुपहले रंग में तूलिका
सफेदे के वृक्षों की पंक्ति से डुबाकर नीले धरातल पर इधर-उधर फेर दी है। उत्पन्न दिग्भ्रान्ति जब कुछ कम हुई तब हम एक जहाँ तक दृष्टि जाती थी, पृथ्वी अश्रुमुखी ही दूसरे ही लोक में पहुंच चुके थे जो उस व्यक्ति के दिखाई पड़ती थी। जल की इतनी अधिकता हमारे समान परिचित और अपरिचित दोनों ही लग रहा यहाँ वर्षा के अतिरिक्त कभी देखने में नहीं आती, था जिसे कहीं देखना तो स्मरण आ जाता है परन्तु परन्तु उस समय के धरातल और यहाँ के धरातल नाम-धाम नहीं याद आता।
में उतना ही अन्तर है, जितना धुले हुए सजल मुख - उस सजीव सौन्दर्य में एक अद्भुत निस्पन्दता और आँसूभरी आँखों में। मार्ग इतना सूखा था थी जो उसे नित्य दर्शन से साधारण लगनेवाले कि धूल उड़ रही थी, परन्तु उसके दोनों किनारे सौन्दर्य से भिन्न किये दे रही थी।
सजल थे, जिनमें कहीं कहीं कमल की आकृतिवाले ___ चारों ओर से नीलाकाश को खींचकर पृथ्वी से छोटे फूल कुछ मीलित और कुछ अर्धमीलित दशा में मिलाता हुआ क्षितिज रुपहले पर्वतों से घिरा रहने झूल रहे थे।
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