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सरस्वती
[भाग ३६
आश्चर्य का विषय है। कोई काष्ठजैसी नीरस वस्तु को सुन्दर आकृति देकर सरस बना रहा था, कोई काराज कूटकर बनाई हुई वस्तुओं पर छोटी तूलिका से रंग भरभरकर उसमें प्राण का संचार कर रहा था और कोई रंग
बिरंगे ऊन या रेशम [शिव जी का मन्दिर
से सूती और ऊनी
वस्त्रों को चित्रमयलगी या सादी टोपी लगाये रहती हैं जो सुन्दर जगत् किये दे रहा था। सारांश यह कि कोई किसी लगती है।
वस्तु को भी ईश्वर ने जैसा बनाया है वैसा नहीं प्रकृति ने इन्हें इतना भव्य रूप दिया, परन्तु रहने देना चाहता था। निष्ठुर भाग्य ने दियासलाई के डिब्बे जैसे छोटे मलिन काश्मीर के सौन्दर्यकोष में सबसे मूल्यवान अभव्य घरों में प्रतिष्ठित कर और एक मलिन वस्त्र- मणि वहाँ के शालामार और निशातबाग़ माने जाते मात्र देकर इनके सौन्दर्य का उपहास कर डाला और हैं और वास्तव में सम्राज्ञी नूरजहाँ और सम्राट हृदयहीन विदेशियों ने अपने ऐश्वर्य की चकाचौंध जहाँगीर की स्मृति से युक्त होने के कारण वे हैं भी से इनके अमूल्य जीवन को मोल लेकर मूल्य-रहित इसी योग्य । शालामार में बैठकर तो अनायास ही बना दिया। प्रायः इतर श्रेणी की स्त्रियाँ मुझे काग़ज़ ध्यान आ जाता है कि यह उसी सौन्दर्यप्रतिमा का में लपेटी कलियों की तरह मुबई मुस्कराहट से युक्त प्रमोदवन रह चुका है जिसे सिंहासन तक पहुँचाने जान पड़ों। छोटी छोटी बालिकाओं की मन्द स्मित के लिए उसके अधिकारी को स्वयं अपने जीवन में याचना, प्रौढ़ाओं की फीकी हँसी में विवशता और की सीढ़ी बनानी पड़ी और जब वह उस तक पहुँच वृद्धाओं की सरल चितवन में असफल वात्सल्य गई तब उसकी गुरुता से संसार काँप उठा । यदि झाँकता रहता था।
वे उन्नत, सघन और चारों ओर वरद हाथों की ___ इसके अतिरिक्त, सफेद दुग्धफेनिभ दाढ़ीवाले, तरह शाखायें फैलाये हुए चिनार के वृक्ष बोल सकते,
आँखों में पुरातन चश्मा चढ़ाये, पतली उँगलियों में यदि आकाश तक अपने सजल उच्छ्वासों को सुई दबाकर कला को वस्त्रों में प्रत्यक्ष करते हुए पहुँचानेवाले फौवारे बता सकते तो न जाने कौन-सी शिल्पकार भी मुझे तपस्वियों-जैसे ही भव्य लगे। इस करुणमधुर कहानी सुनने को मिलती ? सुन्दर हिमराशि में समाधिस्थ पर्वत के हृदय जिन रजकणों पर कभी रूपस्वियों के रागरञ्जित । में इतनी कला कैसे पहुँचकर जीवित रह सकी, यह सुकोमल चरणों का न्यास भी धीरे-धीरे होता था,
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