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सरस्वती
[भाग ३६
हुए दूसरों के कौतूहल का कारण बन रहे थे
और कहीं कोई धर्मदिग्गज धर्मपालन और उदरपूर्ति में कौन श्रेष्ठ है, इस समस्या के समाधान में तत्पर थे। प्रकृति की चञ्चलता। की कमी की पूर्ति मनुष्य में हो रही थी।
अधिकारियों ने हमारे कमरे, नौकर
आदि की जैसी सुव्य[शीतकाल में काश्मीर का एक दृश्य
वस्था थोड़े समय में
कर दी वह सराहने रावलपिण्डी से २०० मील मोटर में चलने से योग्य थी, परन्तु वहाँ के वास्तविक जीवन का परिशरीर अवसन्न हो ही रहा था, उस पर चारों ओर चय तो हमें अपने हाउसबोट में जाकर ही मिल बिखरी हुई अभिनव सुषमा और संगीत के आरोह- सका। नीले आकाश की छाया से नीलाभ झेलम अवरोह की तरह चढ़ाव-उतारवाले समीर की के जल में वे रङ्गीन जलयान वर्षा से धुले आकाश सरसर ने मन को भी ऐसा विमूर्च्छित-सा कर दिया में इन्द्रधनुष की स्मृति दिलाते रहते थे। कि श्रीनगर में बदरिकाश्रम पहुँचकर बड़ी कठिनता जिसने इस प्रकार तरङ्गों के स्पन्दित हृदय पर | से सत्य और स्वप्न में अन्तर जान पड़ा। वह अछोर अन्तरिक्ष के नीचे रहने का इतना सुन्दर आश्रम जहाँ हाउसबोट में जाने तक हमारे ठहरने साधन ढूंढ़ निकाला उसके पास अवश्य ही बड़ा का प्रबन्ध था, सहज ही किसी जू का स्मरण करा कवित्वमय हृदय रहा होगा। जीना सब जानते हैं। देता था, कारण, वहाँ अनेक प्रान्तों के प्रतिनिधि और सौन्दर्य से भी सबका परिचय रहता है. अपनी अपनी विशेषताओं के प्रदर्शन में दत्तचित्त परन्तु सौन्दर्य में जीना किसी कलाकार का ही थे। कहीं कोई पञ्जाबी युवती अपने वीरवेश में गर्व काम है। से मस्तक उन्नत किये देखनेवालों को चुनौती-सी हमारे पानी पर बने हुए घर में एक सुन्दर देती घूम रही थी, कहीं संयुक्त-प्रान्त की कोई सजी हुई बैठक, सब सुख के साधनों से युक्त दो प्राचीना घूघट निकाले इस प्रकार संकोच और भय शयनगृह, एक भोजनालय और दो स्नानागार थे। से सिमटी हुई खड़ी थी मानो सब उसी के लज्जा- भोजन दूसरे बोट में बनता था, जिसके आधे भाग में रूपी कोष पर आक्रमण करने पर तुले हुए हैं और हमारा माँझी सुलताना सपत्नीक चीनी की पुतली-सी वह उसे छिपाने के लिए पृथ्वी से स्थान माँग रही कन्या नूरी और पुत्र महमदू के साथ अपना छोटाहै, कहीं कोई महाराष्ट्र सज्जन शिखा का गुरुभार सा संसार बसाये हुए था। साथ ही एक तितली. सिर पर धारण किये जलाने की लकड़ियों को धोते जैसा शिकारा भी था जिसे पान की आकृतिवाली
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