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संख्या ६]
कोरिया का वज्रपर्वत
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गान्धी की संक्षिप्त आत्मजीवनी उठा लाया। मालूम होता है, कोरियन लोग महात्मा गान्धी से विशेष प्रेम रखते हैं। | क्यु-यु-एन् का अर्थ है नौ-नागों का ह्रद । जलप्रपात के ऊपर आठ कुंड हैं । यहाँ का मनोरम दृश्य देखकर हम लौट पड़े।
शाम को पाँच बजे हम लौटकर फिर उक्त मठ में आ गये। हमारे साथी के लिए कोरियन भोजन तैयार था । नियम के अनुसार बारह बजे बाद तो हम खा नहीं सकते थे, उधर कोरियन भोजन की बानगी भी देनी ज़रूरी थी, इसलिए. भात के दो नेवाले तथा ६-७ तरह की प्यालियों में रक्खी सागभाजी से एक एक कौर मुँह में डाला । लाल मिर्च सिर्फ अचार में थी। कोरियन लोग मिर्च के शौकीन हैं, किन्तु हमारे जापानी साथी का ख़याल कर मिर्च डालने से हाथ रोका गया था। एक समुद्री वनस्पति की पत्ती तथा पकौड़ी-जैसी चीज़ ही तेल में तली गई थी। बाको सभी चोजें पानी में उबाली हुई थीं। नमक ठीक पड़ा था, और प्याज़ के पड़ने से रङ्ग चोखा आ गया था। चीनकोरिया के भिनु मांस से बहुत परहेज़ करते हैं।
हमारे साथी ने जल्दी जल्दी भोजन समाप्त किया, और चिराग़ जलते-जलते हम अपने होटल में आ दोबारा तप्तकुंड में उतरने को तैयार हो गये। मालूम हुआ, लौटते वक्त का मोटर का किराया मठवालों ने बहुत आग्रह-पूर्वक स्वयं दे दिया है।
काङ-गो-सान् के मठों में युतेन्-जी (यु-जम्-सा) का मठ सबसे बड़ा और सबसे पुराना है। किसी समय के ङ-गो-सान् में १०८ मठ जहाँ| तहाँ बिखरे हुए थे। तीस वर्ष पूर्व उनकी संख्या ४० थी, किन्तु
आज-कल ३२ है, जिनमें २१० मिनु और तीस भिक्षुणियाँ रहती हैं। दोनों के मठ अलग अलग हैं। हमारे साथी श्री कुरिता युदेन् जी
[संकेइजी संस्थापक | नहीं जानेवाले थे, इसलिए एक पथप्रदर्शक ले लिया जो जापानी भाषा | जानता था। ७॥ बजे हमारी मोटर टैक्सी रवाना हुई। उसने कोतेइ होता है। कोरियन लोगों के घर झोपड़े होते हैं, किन्तु उनके । में हमें उतार दिया। कोतेइ अच्छा बाज़ार है। यहाँ कई जापानी कपड़े बहुत साफ़ होते हैं। फटे कपड़ेवाले आदमी बहुत कम देखने दूकान भी हैं। ८ बजे के करीब वहा टक्सा फिर आई, और हम पीछ में आते हैं। सफेद रंग उनका जातीय रंग है। तरुण, बाल वृद्ध की ओर लोटे । जापान टूरिस्ट ब्यूरो की ओर से छपे पैम्फलेट में नकशा स्त्री-पुरुष सभी को आप सफ़ेद कपड़ों में देखेंगे। एक-आध स्त्री कभी देखा तब मालूम हुआ कि मेाटर का रास्ता बहुत धूम कर गया है। कुछ कभी काले या हरे घाँघरे में भी दिखाई पड़ जायगी, किन्तु ऐसा बहुत पीछे लौट कर एक लकड़ी के पुल से नदी पार कर हम आगे चले। कम है। हमारे रास्ते में एक-आध जगह दो-एक जापानी घर भी दिखाई । सड़क बहुत रद्दी थी। कुछ समय के बाद हम पहाड़ के अंचल में पहुँच पड़े, और उनके घरों के पास सेब, नासपाती और आड़ के बाग़ भी
गये। फिर रास्ता नदी और पहाड़ के दर्मियान से जा रहा था। बराबर थे। जापानियों का गुजारा भला साँवा, टाँगुन (काकुन) और मक्के से की भूमि में सभी जगह धान की खेती होती है। आज-कल वे फूल चल सकता है ! कोरियन लोगों का ध्यान इन बातों की ओर कम है। रहे हैं।
हमारे एक जापानी इंजीनियर सहयात्री ने कहा-काम में कोरियन गाँवों में कोरियन लोगों के घर सारे ही फूस की छतवाले तथा लोगों को आप हमेशा पीछे पायेंगे. हाँ बात बनाने तथा राजनैतिक एकमहले मिले। वे गरीब तो हैं ही, किन्तु उनकी गरीबी को भारत से आन्दोलन में वे बहुत उत्साह दिखलाते हैं । इंजीनियरिंग की ओर वे नहीं मिलाया जा सकता। घरों में एक-दो कमरे ऊँची कुसी के होते हैं, नहीं आते। उक्त इंजीनियर १९०४ ईसवी में रूस-जापान-युद्ध के और बगुल का नीची कुर्सी का एक कमरा रसोई घर होता है। मुगियों समय में यहाँ आये थे. तब से यहीं रेलवे-विभाग के इंजीनियर हैं। का दरवा बाहर होता है, और सूअर का खोभार भी बाहर ही एक तरफ़ ह्य-कु-सेन्-क्यो में उतर गये। टैक्सी थोड़ी देर के बाद लौट गई
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