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संख्या ६ ]
लिए एक पुण्य पर्व का काम देता था। जिस काल में पंजाब का नारी-समाज पर्दे की कड़ी बेड़ियों में जकड़ा पड़ा था, उस काल में यह विद्यालय स्त्रियों के लिए राक्षसों से पीड़ित प्रदेश में वाल्मीकि के आश्रम के समान था । यहाँ आकर वे स्वतंत्रता और निर्भयता के साथ बिना पर्दे के घूमती-फिरती थीं। इन पंक्तियों के लेखक ने सनातन-धर्म के नाम को बदनाम करनेवाले कुछ अज्ञानी लोगों को बहुत ही घृणित रीति से स्त्री-शिक्षा और जालन्धर के कन्या- विद्यालय की खिल्ली उड़ाते देखा है। कुछ लड़के लड़कियों का वेष बनाकर एक छकड़े पर बैठ जाते थे और अतीव अश्लील गीत गाते हुए गेंद बल्ला खेलने का स्वाँग भरते थे । सनातन धर्म के उत्सवों में इसी मंडली के साथ सबसे अधिक भीड़ हुआ करती थी । परन्तु आज हम क्या देखते हैं ? वही सनातन-धर्मी खुद कन्या पाठशालायें खोल रहे हैं । आज उनके उत्सवों में स्त्री-शिक्षा के विरुद्ध वैसी बकवाद करने का किसी को साहस नहीं होता । दूसरे शब्दों में श्रीमान् देवराज जी ने आज से पचास वर्ष पूर्व जनता को जिस सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा की थी, जिस नवीन विचार सरणी पर उसको डाला था, उस पर वह अब पूरे प्रेम और उत्साह के साथ अग्रसर हो रही है। इसी लिए मैं कहता हूँ कि महत्ता की कसौटी पर वे पूरे उतरते हैं । खेद है कि स्त्री जाति के इस परम हितकारी और पंजाब में स्त्री-शिक्षा के इस निर्भीक मार्ग-दर्शक का, ७५ वर्ष की आयु में, गत ४ वैशाख संवत् १९९२ को अचानक देहान्त हो गया ।
लाला देवराज जी
लाला देवराज जी का जन्म जालन्धर के एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था । उनके पिता राय सालिगराम जी एक बड़े रईस और सरकारी इलाके में तहसीलदार थे। लाला जी को अपनी माता श्रीमती काहनदेवी पर बड़ी भक्ति और स्नेह था। अपने चार भाइयों में वे दूसरे थे। सबसे बड़े भाई का देहान्त बहुत दिन पहले हो
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चुका था। तीसरे भाई रायजादा भक्तराम जालन्धर के प्रसिद्ध बैरिस्टर थे । चौथे भाई श्रीयुत हंसराज जी वैरिस्टर कांग्रेस के प्रसिद्ध कार्यकर्त्ता हैं । श्रीमान् देवराज की एक भगिनी भी थीं। उनका विवाह स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्द जी (तब महाशय मुंशीराम जी) के साथ हुआ था ।
मुझे स्वर्गीय लाला देवराज जी के साथ कोई दो बरस तक रहने का सुअवसर मिला था। इस थोड़े-से समय में मैंने उनमें अनेक देवदुर्लभ गुण देखे। सबसे पहला सद्गुरण तो उनका बहुत उच्च चरित्र था । विद्यालय की लड़कियाँ उन्हें 'चाचा जी' कहा करती थीं और वे सचमुच उनके चाचा ही थे। जिस प्रकार किसी स्नेहशील पिता के घर में प्रवेश करते ही सभी बच्चे हर्ष से प्रफुल्लित हो उठते हैं और उससे आकर लिपट जाते हैं, ठीक उसी प्रकार श्रीमान देवराज जी के महाविद्यालय के आँगन में पाँव रखते ही विद्यालय की सभी लड़कियाँ उनसे आकर लिपट जाती थीं । कई छोटी लड़कियाँ तो उनकी पीठ पर चढ़ जाती थीं और जेबों में हाथ डाल कर फल-फूल निकाल लेती थीं। उस समय वे भी उन बच्चियों के साथ बच्चे ही बन जाते थे । वे भी उनके साथ उसी प्रकार खेलते थे, हो हो करके चिल्लाते थे, भागते थे, लुकते थे। लड़कियाँ उन्हें खोजती थीं, वे लड़कियों को खोजते थे। मुझे यह दृश्य देखने का सौभाग्य अनेक बार प्राप्त हुआ था । सचमुच ऐसा जान पड़ता था, मानो पिता अपनी पुत्रियों के साथ खेल रहा है। माता-पिता के स्नेह से वंचित 'आश्रम' - निवासिनी कन्यायें लाला जी के साथ इस प्रकार खेलकर अपने माता-पिता के विछोह को भूल जाती थीं । आश्रम का कठोर और स्नेहशून्य जीवन लाला जी के इस पिता सदृश व्यवहार से उन्हें सरस जान पड़ता था ।
मैंने बहुत कम कन्या-संस्थायें ऐसी देखी या सुनी हैं, जिनके संचालकों पर किसी-न-किसी प्रकार का आचार-दोष जनता ने न लगाया हो । यही कारण
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