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जीवन-सरिता
लेखक, एक राष्ट्रीय आत्मा' देखो तो तटिनी के तट पर, जाकर उसके परम समीप, कितने हैं जल चुके वहाँ पर, और बुझ चुके प्रेम-प्रदीप । कितने लाल लुट चुके, कितने मिट्टी में मिल चुके सुहाग, कितने बालक, युवा-वृद्ध थे कितने निर्धन, धनिक-महीप ॥१॥
देखो पावन पयस्विनी वह, फिर भी बहती है अविराम, नहीं देखती, नहीं देखती, कोई दृश्य विकट-अभिराम । अहोरात्र चलती जाती है, सज सज समयोचित अभिसार,
इस श्रम का पयोधि प्रियतम से, क्या होगा परिणय-परिणाम ? ॥२॥ उसी आपगा के पुलिनों पर, पादप-पुञ्ज लगाकर पाँति, अचल-अटल हो अड़े-खड़े हैं, पथ-रक्षक प्रहरी की भाँति । जो सन्तत सचेत रहते हैं, पाते हैं उत्तम उपहार, पथ-बाधक सब बह जाते हैं, होता है उनका संहार ॥३॥
वे जो निज मन-मल धोने को, करते हैं मल मल स्नान, या वे जो धोखा देने को, हैं धरते बहुधा बक-ध्यान । स्रोतस्विनी बहाती अपना, सबके लिए सदा शुचि स्रोत,
अपनी अपनी अभिलाषा का, पाते हैं सब उससे दान ।।४।। रंग-रँगीले विविध विहंगम, बहुधा बोल मनचले बोल, भाव टटोल रहे हैं उसका, निज निज गाँठ गिरह की खोल । सुनी-अनसुनी कर उन सबकी, जाती चली धुनी धुन बाँध, कोई मोल नहीं ले सकता, उसका मन-माणिक अनमोल ॥५॥
विमल-वारि-भरिता सरिता वह, दिखलाकर निज चारु चरित्र, दोनों ही कुल-कूल कर रही, कुल-ललना की भाँति पवित्र । कितने ही गन्दे नालों को कर लेती वह निर्मल नीर,
कोई छल से भी न छू सका, उसका रुचिकर चीर विचित्र ।।६।। तीर तीर ही रम्य नगर हैं , आस-पास ही हैं बहु ग्राम, अगणित दुर्गम दुर्ग बने हैं, पक्के घाट सुभग सुरधाम । जिनमें नरनागर, नयनागर, भटनागर हैं नागर-देव, छूने न दी किसी को छाया, पाया उचित नदी यह नाम |||
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