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सरस्वती
[भाग ३६
है कि आज से कुछ वर्ष पूर्व तक किसी भी कन्या. हो आया कि हाँ, इस नाम की अमुक स्थान की एक विद्यालय के साथ छात्राओं के रहने के लिए आश्रम लड़की विद्यालय में पढ़ा करती थी। तब उन्होंने जेब या बोर्डिङ्ग हाऊस न होता था। परन्तु श्रीमान् से एक रुपया निकाल कर, पुराने शिष्टाचार के देवराज-द्वारा संस्थापित जालन्धर के कन्या-महा- अनुसार, उस युवक को भेंट किया और कहा कि विद्यालय के साथ लगभग आरम्भ से ही छात्रावास आप सचमुच मेरे जामाता हैं, ससुर का यह प्रेमोपहार का होना इस बात का प्रमाण है कि जनता को लाला स्वीकार कीजिए और मेरी बेटी से राजी- खुशी देवराज पर कितना भारी विश्वास था। उनका कट्टर- कह दीजिएगा। से-कट्टर विरोधी भी कभी उनके चरित्र पर दोष आज कितने कन्या-विद्यालय या गर्ल्स स्कूल हैं नहीं लगा सका।
जहाँ इस प्रकार का पिता-पुत्री का सम्बन्ध देख ___ एक समय की बात है, मैं लाला जी के साथ पड़ता है या सम्भव भी है ? कहावत है कि मर्द की विद्यालय को जा रहा था। विद्यालय नगर से बाहर माया और वृक्ष की छाया उसके साथ ही जाती है। कोई डेढ़ मील के अन्तर पर है। रास्ते में एक मुसल- श्रद्धेय लाला जी के निधन से विद्यालय को जो इस मान किसान युवती सिर पर रोटी और हाथ में अंश में हानि हुई है उसकी पूर्ति अब किसी भी छाछ का लोटा लिये जाती मिली। लाला जी ने झट प्रकार सम्भव नहीं। लाला जी की मानस-पुत्रियों उसकी पीठ पर हाथ रख दिया और बड़े स्नेहपूर्ण का सारे देश में एक जाल-सा फैला हुआ था। कोई शब्दों में पूछा-बेटी, कहाँ जा रही हो? युवती ने भी नगर ऐसा न होगा, जहाँ जालंधर-विद्यालय की भी ठीक उसी भाव से जो पुत्री का पिता के प्रति पढ़ी हुई दो-एक लड़कियाँ न हों। होता है, उत्तर दिया-चाचा जी, खेत में हरवाहे को लाला जी में वाणी का संयम भी बहुत था। रोटी देने जा रही हूँ। उस स्वर्गीय दृश्य को देखकर मैंने कभी उनको किसी की निन्दा करते नहीं सुना । मुझे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ। मैंने मन में सोचा, बड़े आदमियों में बहुधा निन्दा-चुगली सुनने की बड़ी कितनी पवित्र आत्मा है, कितना शुद्ध हृदय है ! कोई आदत होती है। वे कान के भी बड़े कच्चे होते हैं। दूसरा मनुष्य इस प्रकार नि:संकोच होकर दूसरे की परन्तु लाला जी की बात इसके विलकुल विपरीत थी। लड़की की पीठ पर हाथ रखने का साहस नहीं कर जब कोई मनुष्य उनके सामने किसी की निन्दा करने सकता।
लगता तब वे फौरन उसे रोक देते और कहते कि लड़कियाँ भी सचमुच उनके साथ अपना पिता- यदि उसमें एक-आध कमी थी तो सद्गुण भी तो पुत्री का सम्बन्ध मानती थीं । लाला जी ने मुझे खुद बहुतेरे थे। सर्वतोभावेन वह बहुत भला मनुष्य था। सुनाया था कि एक समय वे रेल में यात्रा कर रहे थे। हमें उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। जिस डिब्बे में वे सवार थे उसी में एक और यवक लाला जी रसिक और आनन्दी भी खूब थे। भी आ बैठा। उसने आकर बड़े प्रेम और सम्मान निर्दोष हँसी-मखौल में अच्छा रस लेते थे। एक के साथ उन्हें नमस्ते किया। थोड़ी देर के बाद समय की बात है, जालन्धर में एक ब्रह्मचारी आये । उन्होंने उससे पूछा कि मैंने आपको पहचाना नहीं, वे कोई २०-२२ वर्ष के युवक थे। घर की सारी
आप मुझे कैसे जानते हैं ? उस लड़के ने फट से संपत्ति किसी आर्य-सामाजिक संस्था को दान कर कहा-आप मुझे नहीं जानते ! मैं आपका जामाता दी थी और अब आप स्वामी दयानन्द की शैली पर हूँ। आपकी अमुक लड़की मेरे साथ व्याही हुई है। संस्कृत पढ़ने के उद्देश से जगह-जगह घूमते-फिरते यह सुनकर लाला जी दंग रह गये। फिर उन्हें याद थे। उनके सिर पर गाय के खुर के बराबर चौड़ी
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