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संख्या ६]
लाला देवराज जी
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और बहुत लंबी चोटी थी। सिर नंगा रखते थे। नहीं देखा। परन्तु सभा में बैठे हुए एक घोर आर्यपाँवों में खड़ाऊँ और तन पर धोती मात्र रहती थी। समाजी, मास्टर सत्यपाल जी, मुझसे बहुत बिगड़े। वहाँ एक आर्यसमाजी प्रोफेसर के यहाँ ठहरे थे। मैंने उनके बिगड़ने का कारण पूछा, तब बोले-तुमने जब चलते थे तब खड़ाऊँ की खटखट और चोटी का एक ब्रह्मचारी को तेल के पकौड़े क्यों खिलाये हैं ? फहराना अजब बहार दिखाता था। कुछ दिनों के मैंने पूछा-इसमें क्या हर्ज है ? वे बोले-शास्त्र बाद जब वे जालन्धर से जाने लगे तब मैंने उनको में ब्रह्मचारी को तेल के पकौड़े खिलाने का कहाँ एक एड्रस देने का आयोजन किया। कुछ सज्जन विधान है ? मैंने कहा-भाई, मैंने तो शास्त्र पढ़े निमंत्रित किये गये। उनमें अधिकांश लोग तो नहीं। मुझे पता नहीं था, क्षमा कीजिए। उदार विचार के रसिक मनुष्य थे, पर दो-एक घोर लाला देवराज जी ने जब ब्रह्मचारी को अभि
आर्यसमाजी भी थे! ब्रह्मचारी जी के जल-पान के नन्दन-पत्र देने की बात सुनी तब वे बहुत हंसे और लिए एक पैसे के पकौड़े मंगाये गये। मेरे पास कुछ बोले-तुमने मुझे क्यों न बुलाया ? उस सभा में तो शक्कर पड़ी थी, उसका शबंत बनाकर निमंत्रित मैं भी सम्मिलित होना चाहता था। मैंने कहा-जी, सज्जनों को पिलाया गया। जब एड्स-अभिनन्दन- आपको किसने बता दिया ? आपको सभा में पत्र देने का समय हुआ तब पहले तो ब्रह्मचारी जी बुलाना तो दूर, मैं तो डरता था कि आप सुनगे तो ने ही आने से इनकार कर दिया। बड़ी मुश्किल से नाराज होंगे। वे बोले-ऐसी निर्दोष हँसी में क्या वे पकड़ कर लाये गये। अब उस विचित्र सभा डर है ? का सभापति कौन हो, यह समस्या आ खड़ी हुई। लाला जी बड़े विद्या-व्यसनी थे। उनको उत्तउन दिनों मित्रवर भदन्त राहुल सांकृत्यायन (तव मोत्तम पुस्तकें इकट्ठी करने का बड़ा शौक़ था। वे अपने श्री केदारनाथ जी) भेरे पास ठहरे हुए थे। वे पीछे अपना निज का एक बहुत बड़ा पुस्तकालय उठकर खड़े हो गये और वोले कि मैं समझता हूँ, छोड़ गये हैं। भगवान बुद्ध का जीवन चरित और इस सभा के प्रधान पद के लिए मुझसे योग्य दूसरा उनके उपदेश वे विशेष चाव से पढ़ा करते थे। मनुष्य नहीं । इसलिए मैं इसका प्रधान बनता हूँ। उन्होंने पंजाब में हिन्दी-प्रचार के लिए भी इतना कहते ही वे झपटकर कुरसी पर जा बैठे। बहुत काम किया था। छोटे बच्चों की प्रकृति को वे तब मैंने अभिनन्दन-पत्र पढ़ना शुरू किया—"श्री व समझते थे। उनके लिए उन्होंने ४० के लगभग ब्रह्मचारी जी महाराज, जब आपकी चोटी का छोटी-छोटी सुन्दर पुस्तकें लिखी है। कन्या-पाठफहराना और खड़ाऊँ का खटखटाना याद आयगा, शालाओं में आज भी जितना लाला जी की पुस्तकों तब हम रो-रो मरेंगे—मैं इतना ही कह पाया था कि का प्रचार है उतना किसी दूसरे की पुस्तकों का नहीं । ब्रह्मचारी जी वहाँ से भागने लगे। उन्हें पकड़कर उन्होंने 'पाञ्चाल पण्डिता' नाम की एक मासिक बैठाये रखने का यत्न किया गया कि आप पूरा एड्स पत्रिका भी कई वर्ष तक चलाई थी। उस समय तो सुनकर जायें, परन्तु वे रोनी सूरत बनाकर पंजाब में हिन्दी का बहुत ही कम प्रचार था। फिर कमरे से बाहर भाग गये । प्रधान जी समेत सारी सन् १९१९ में उन्होंने महाविद्यालय की ओर से सभा उनके पीछे भागी और उनको सड़क में पकड़ 'भारती' नाम की एक और मासिक पत्रिका लिया कि हमने इतनी तैयारी की है, अब आपको निकाली थी। एड्स लेना ही पड़ेगा। खैर, ज्यों-त्यों करके वे वहाँ लाला देवराज जी आर्यसमाज के पुराने सेवक से भाग गये और फिर उनको जालन्धर में किसी ने और पक्के समाज-सुधारक थे। उनके परिवार में
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