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संख्या ६]
वह
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है...।" वह आगे न कह सकी। यह देखना कठिन मैंने चिल्लाकर कहा-आना, जरूर। फिर न था कि वह थोड़ी ही देर की मेहमान है। आना।
मेरे नेत्रों में आँसू आ गये। मैंने कहा-तुमने उसकी आँखें बन्द हो गई थी, किन्तु उसने उन्हें मुझे ऐसा पशु समझा जिसका स्वभाव किसी भी खोल दिया। शिक्षा-दीक्षा से बदला नहीं जा सकता। तुमने भूल डाक्टर आ गया। डाक्टर को देखकर उसके की है।
कोमल मधुर होंठों पर विद्रूप परिहास की रेखा - "बस, यही मैं सुनना चाहती थी। इसी लिए मैंने खिंच गई।
आज यह सारी-जला-दी-है।" वह फिर आगे वह अन्तिम और अमिट रेखा थी! कुछ न कह सकी।
अनुरोध लेखिका, श्रीमती कुमारी शकुन्तला देवी 'अकर्मण्य' श्रीवास्तव कोमल कुसुमित कलियों का शुचि स्वागत डाल सजाये। अन्तरतम के कोने में आशा का दीप जलाये ॥ कितनी कितनी श्रद्धाओं से नव नैवेद्य लुटाये। अपलक लोचन से लखती पथ कब पलक बिछाये ॥
राह देखते नेत्र थके जीवन भी थकता जाता। निशि निशीथ अवसान निकट बस मिलने तक है नाता ॥ इस उजड़ी कुटिया को एक दिन आ आलोकित करना ।
मुझ आहत के शून्य गगन में पुलक प्रेम रस भरना । अरे ! दीप बुझने पर है सूखी फूलों की माला। बाधक होता क्या मेरा यह अक्षुण जीवन काला ॥ दीन तुम्हें प्यारे लगते रखते दीन तुम्हें दृग-पल । भर दो ! निज कर से प्रभु मेरे आ मेरा अंचल ॥
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