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संसार
लेखक, श्रीयुत कुंवर हरिश्चन्द्रदेव वर्मा 'चातक' कविरत्न
शीतल सुखद विभात-वायु निज मधुर मधुर सर सर रव सेकहता है " गतिशील जगत यह" द्वार द्वार चलकर सबसे । सौरभ ने मिलकर के उससे कहा “ठीक है ठीक सखे ! 'आज यहाँ कल वहाँ न जाने डोल रहा हूँ मैं कब से" !
"सदा सुगन्ध-भरे फूलों का दिव्य जगत है यह सुन्दर" भन भन कर कहते फिरते हैं ललित लताओं से मधुकर | afterयें भी शीश हिलाकर मानो कहती हैं उनसे“एक फूल ही नहीं किन्तु हैं साथ साथ में शूल प्रखर " । मालधारिणी उषा है, और अरुण रक्तांशुकधर" नित्य मिलनमय जगत अमर यह " कहते हैं दोनों मिलकर । तभी धूल में मिल बतलाते तरल प्रोस के लघु मोती"अपनी तो क्षण भर की दुनिया हम क्या जानें जगत अमर ।
पल्लव अवगुण्ठन सरकाकर कलियाँ ताक रही हैं राहवे कहती "जग एक प्रतीक्षामय है छवि-दर्शन की चाह " । पर फूलों ने कहा " न भूलो यहाँ किसी का कब कोईअपना रूप रङ्ग ही होता जब फिर अपना घातक आह ? " ।
सान्ध्य अरुणिमा के कुङ्कुम से बधू प्रतीची रँग निज चीरकहती है बस यही कि 'दुनिया है सुन्दरता की तसवीर' । किंतु उसी क्षण तम की चादर बुनता कहता काल कुविन्द"सुन्दरता की क्षीण प्रभा को घेर रहा तम का प्राचीर" ।
पावन दूर्वादलास्तरण पर सुख से सोई विधुबाला - कहती है "जग एक मनोहर शिशु-सा है भोला भाला” । “नहीं ! नहीं !! जग मधु-मन्दिर है", विभावरी रानी बोली"अरुण कपोल हुए पाटल के पीते ही जिसकी हाला " ।
इस प्रकार से जग क्या है ? जैसा जिसके जी में आयाअपने दृष्टिकोण से उसने उसको वैसा बतलाया । शेफालिका-कुञ्ज में बैठा कवि सुनता था सबके भावऔर गुनगुनाता था “जग है एक रहस्य - पूर्ण माया " ।
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