________________
४३४
सरस्वती
[भाग ३६
से कमाना-खाना बहुत कम मनुष्यों को पसन्द है। मैं भाई के राखी न बाँध सकूँगी ? उनके पास जाने 'सहे वेध बन्धन सुमन तब गुण संयुत होय'--इस से मुझे अपमानित और लांछित होना पड़ेगा। पर सुन्दर नीति के अनुयायी इने-गिने ही होते हैं। इससे मेरा क्या घट जायगा? वे भले ही राखी अस्तु, चंपालाल के पहले के वे सब विचार बदल न बाँधने दें, पर मैं उनके पास अवश्य जाऊँगी। गये। पास में पैसा आने से उन्हें हरा ही हरा सूझने मैं उनसे कुछ न लूंगी, खाली राखी बाँध दूंगी। न • लगा । देवकी ने किशनचंद की प्रकृति का स्मरण बँधवावेंगे तो रखकर चली आऊँगी । मेरा दस्तूर हो दिलाकर उन्हें सचेत करना चाहा, पर कुछ फल न जायगा | लोग हंसेंगे तो हंस लेंगे। वे हठी अवश्य हुआ। वे समझते थे कि यदि रुपया समय पर न हैं, पर हृदय-हीन नहीं हैं। मैं उनके स्वभाव को भी चुका सका तो ठेकेदार साहब अवधि बढ़ा देंगे। जानती हूँ। पत्थर-सा कठोर और मोम-सा कोमल । कम से कम देवकी के लिए तो उन्हें ऐसा करना ही ऐसा विचार मन में आते ही उसके हृदय में पडेगा। यह उनकी स्वार्थान्धता थी। ठेकेदार साहब माहस का संचार हुआ। वह ठंडी साँस लेकर उठ बहन-बहनोई से बराबर मिलते-जुलते थे। पर कभी खड़ी हुई और राखी को कपड़े में छिपा लोगों की रुपयों के लिए मुँह से एक शब्द भी नहीं निकालते दृष्टि बचाती हुई किशनचंद के पास पहुँची। वे थे । निदान जिस बात की आशंका थी वही हुई। आरामकुर्सी पर बैठे हुए समाचार-पत्र पढ़ रहे थे। चंपालाल निर्धारित समय पर रुपया न चुका सके। देवकी के अंग पर कुछ न था। आभूषण के लज्जा के मारे उन्होंने किशनचंद के यहाँ का आना- नाम से दोनों हाथों में काँच की दो दो चूड़ियाँ थीं। जाना बन्द कर दिया। देवकी भी संकोच करने लगी। काँपते हुए नंगे हाथों में भ्रातृ-स्नेह के निदर्शक दिव्य
मियाद के खत्म होने के एक माह के बाद ठेकेदार रक्षा-सूत्र को देखकर किशनचंद का हृदय पिघल माहब ने नालिश करके दूकान कुर्क करवा ली। उठा । प्रेम के अजस्र स्रोत ने उनके संकल्प एवं देवकी का मोह-बन्धन भी तोड़ दिया। दोनों से हठ-धर्म के प्रबल बाँध को तिनके की नाई तोड़कर उन्हें आन्तरिक घृणा हो गई। वे उनके नाम से नाक फेंक दिया। वे उसी क्षण उठकर बहन के गले से सिकोड़ते थे। मच है, मीठे फल में ही कीड़े पड़ते हैं। लिपट गये और बच्चे की नाई रोने लगे। ____ चंपालाल के पास जीविका का कोई अब ठाँव देवकी ने कहा-"भैया, मैं तुम्हारी अपराधिनी न रहा। गहना बेचकर उन्होंने कुछ दिन बिताये। हूँ। मुझे क्षमा करो। तुम मेरे पिता के समान हो। पर जब कुछ न रहा तब दूसरे की नौकरी करने तुम्हें छोड़कर कहाँ जाऊँगी ?" लगे। जठर-ज्वाला तो किमो प्रकार शान्त करनी ही किशनचंद ने बहन के पैरों पर गिर कर कहापड़ती है।
"परमात्मा के लिए क्षमा करो। मुझे ऐसी बातों के
सुनने का अभ्यास नहीं है। मैंने दो हजार के लिए श्रावण की पूर्णिमा थी। पास-पड़ोस की सभी दूकान कुर्क करवाकर तुम्हें निराधार कर दिया था। बहनें, भाइयों को राखी बाँध रही थीं। देवकी का आज उसके बदले चार हजार देकर मैं अपनी भूल हृदय शून्य था । वह किसे राखी बाँधती ? किशन- का संशोधन करता हूँ ।” चंद के सिवा उसके पीहर में कोई नहीं था। संसार देवकी के नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। का यह माया-बन्धन टूट ही चुका था। इसी से उसे उसने हिचकियाँ लेते हुए कहा-"भगवान तुम्हारा आज का यह प्रेम-पर्व प्रतारणा-पूर्ण प्रतीत हो रहा भला करें । भैया, धन की शोभा धर्म से ही है।" था। वह मन ही मन सोचती थी-क्या इस वर्ष
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com