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संख्या ५]
सम्पादकीय नोट
शासन-प्रबन्ध में कांग्रेसियों के सरकारी पद-ग्रहण करने लब है कि मुसलमान यदि मुसलमानों से हो खरीदेंगे तो का प्रश्न उठ खड़ा हुआ है तब से कांग्रेसवालों में और भी मुसलमान का पैसा मुसलमान के ही पास रहेगा और अधिक मतभेद हो गया है। लोगों का अनुमान है कि इससे मुसलमान-जाति की आर्थिक दशा सुधरेगी। और पद-ग्रहण करने के पक्ष में कांग्रेस के बड़े बड़े सूत्रधार हैं, यह विचार प्राचीन 'बैतुल-माल' के विचार से मेल अतएव जो लोग उस के पक्ष में नहीं हैं वे अपना तीव्र खाता है । बैतुल-माल अर्थात् सार्वजनिक काष की व्यवस्था मतभेद प्रकट कर रहे हैं और ऐसा जान पड़ता है कि सदा मुसलमानी देशों में रही है और उसके धन से कांग्रेस का यह गृह-कलह उसके अगले अधिवेशन में आपद्ग्रस्तों की सहायता होती रही है । अपने उक्त अान्दोसूरत की तरह उसकी सूरत बिगाड़ने में ज़रा भी अागा- लन से पीर साहब इसी बैतुल-माल की फिर स्थापना करना पीछा नहीं करेगा।
चाहते हैं, जिससे मुसलमानी उद्योग-धन्धों का पुनरुजीवन ___इस प्रकार एक ओर कांग्रेस की फूट और दूसरी किया जा सके। इस अान्दोलन का उद्देश किसी का
ओर साम्प्रदायिक कलह देश की शान्ति और व्यवस्था के बायकाट करना नहीं है, न पि केटिंग करना है। ये महाविघातक सिद्ध हो रहे हैं और देश के वे सभी नेता चुप- नुभाव यह भी कहते हैं कि बायकाट और पिकेटिंग मुसचाप बैठे इस सारी दुरवस्था की उपेक्षा कर रहे हैं जो लमानी विचार नहीं हैं, ये तो हिन्दू चीजें हैं । पीर साहब देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर चुके हैं। जान के समर्थकों की ये दलीलें सरल और स्पष्ट हैं । इनसे पड़ता है कि इस समय प्रतिक्रियावादियों ने देश में अपना किसी का विरोध भी नहीं हो सकता है। परन्तु कठिनाई महत्त्व बढ़ा लिया है, उन्होंने राष्ट्र के संयम और बुद्धि को सिर्फ यही है कि यदि उनके अनुकरण पर भारत की दूसरी हतप्रभ कर दिया है । इस समय देश की ऐसी ही भीषण जातियाँ भी अपने अपने 'बैतुल-माल' स्थापित करने लग दुरवस्था है। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि यह सब जायँगी तो इसका परिणाम क्या होगा । क्या इससे राष्ट्र के नेता महात्मा गांधी की आँखों के सामने हो राष्ट्रीय भावना के विकास में बाधा नहीं पहुँचेगी जो वर्षों रहा है। इससे अधिक दुःख की और क्या बात हो के परिश्रम और अात्मत्याग के बाद इस देश में पल्लसकती है !
वित हो चुकी है ? परन्तु पीर साहब के अनुयायी राष्ट्रीय
भावना का इस देश में अस्तित्व ही नहीं स्वीकार करते । 'बैतुल-माल' का प्रश्न
न सही, किन्तु उनके इस आन्दोलन से क्या वे पारस्परिक शहीदगंज के मामले के बाद से पंजाब के मुसलमानों व्यवहार-बन्धन नहीं टूट जायँगे जो गत सात सदियों से के एक बड़े समूह ने 'मुसलमानों से खरीदो' का जो यहाँ जड़ पकड़े हुए हैं। इस अान्दोलन के पुरस्सर
आन्दोलन खड़ा किया है उसकी निन्दा दिल्ली के मुस- कर्ताओं को समझ लेना चाहिए कि यह बेल मड़ये नहीं लमानों ने खुल्लमखुल्ला की है । उक्त आन्दोलन के प्रवर्तक चढ़ेगी, बल्कि इसके बढ़ने पर भारतीय सामाजिक पोर जमायतअली शाह उस दिन जब अपने प्रचार अवस्था सारी की सारी इस तरह बिगड़ जायगी कि उसके के दौरे के सिलसिले में दिल्ली में पधारे थे तब वे वहाँ सुधरने में युगों का समय लगेगा। खेद की ही नहीं, बड़े अपना प्रचार नहीं कर सके और दिल्ली के मुसलमानों ने परिताप की बात तो यह है कि जो लोग इस घातक उनकी बात सुनने से इनकार कर दिया। यह देखकर अवस्था का सारा भेद समझते-बूझते हैं वे भी इस समय पीर साहब के अनुयायियों ने अब एक दूसरी चाल चली या तो उसकी उपेक्षा कर रहे हैं या एक-दो वक्तव्य निकाल है। वे उक्त आन्दोलन को 'बैतुल-माल' के सिद्धान्त कर अपने कर्तव्य से छुट्टी पा लेते हैं । परन्तु सबसे अधिक पर आश्रित बताकर उसे धार्मिक बाना पहनाना चाहते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि रावी के तट पर स्वाधीउनका कहना है कि इस आन्दोलन का केवल यही मत- नता का बिगुल फूंकनेवाली कांग्रेस भी पंजाब के इस
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