________________
संख्या ५]
नई पुस्तकें
यद्यपि स्वामी जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि कारण से असमर्थ हैं वे आपके जैसे विचारशील उदार"वर्णाश्रम-धर्म की सुव्यवस्था इस समय नहीं है, क्योंकि चेता योगिराट की सहायता यदि पाते तो कितने प्रसन्न ब्राह्मण ब्राह्मणत्व में नहीं, क्षत्रिय क्षत्रियत्व में नहीं, वैश्य होते ! हमें आशा है, स्वामी जी अपनी वैयक्तिक मुक्ति वैश्यत्व में नहीं और शूद्र शूद्रत्व में नहीं (पृष्ठ २६)” की साधना को छोड़कर इस विशाल देश की मुक्ति के तथापि आप इस निर्जीव "वर्णाश्रमधर्म को तोड़ कर, लिए, ब्राह्मण से लेकर अछुतपर्यन्त, सबको अपने विचारों जातिपाँति मिटाकर खिचड़ी" बनाने के पक्षपार्ता के अनुसार सच्चे आत्मरूप हरि का दर्शन कराकर कल्याणनहीं हैं।
पथ की ओर ले चलेंगे। स्वामी जी हरिजनों को श्री कलि“मन्दिर-प्रवेश तथा हरिजन" नामक अध्याय में मन्तरणोपनिषद् के तारक ब्रह्म महामंत्र 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण स्वामी जी कहते हैं कि “किसी मनुष्य को यानी ब्राह्मण इत्यादि का सप्रेम कीर्तन करने का भी अधिकार देते हैं।' से लगाकर (लगायत ?) अछूत डाम, मेहतर, चमार तक परन्तु उन्हें शायद मालूम नहीं कि विश्वनाथपुरी काशी में को श्रात्मोन्नति के विकास के लिए (?) मन्दिर की कोई इसी महामंत्र की दीक्षा का प्रयत्न करने पर महामना मालअावश्यकता नहीं होती है। हाँ, धर्म का एक गौण अङ्ग वीय जी को सनातनधर्मियों के हाथों ही कैसी लांछना मन्दिर है।" परन्तु स्वामी जी को यह जानकर श्राश्चर्य उठानी पड़ी थी। होगा कि ग्राप जिसे प्रात्मोन्नति के विकास के लिए अना- अाध्यात्मिक योग की अोर वर्तमान भारत की जनता वश्यक और धर्म का गौण अंग बतलाते हैं उसी मन्दिर की दृष्टि आकर्षित करना, वर्णाश्रमधर्म की अव्यवस्था का द्वार कुछ स्वार्थी लोग रोके खड़े हैं और सर्वसाधारण को व्यवस्थित करने की चेष्टा, तथा ब्राह्मणों के उद्बोधन की समान सम्पत्ति, इन मन्दिरों, को उन्होंने अपनी बपौती के लिए ज़ोरदार अपील, ये इस पुस्तक के गुण हैं । समझ रक्खा है। स्वामी जी, सुधारकों को इस विषय में अछूत-श्रान्दोलन पर हमें विस्तार से कुछ कहना पड़ा जो उपदेश देते हैं वह भी सुनिए-“यदि सुधारक महा- अन्यथा पुस्तक के इस अंश से भ्रान्ति फैल सकती थी। शयगण. हरिजनों को अपने अपने हृदय-मन्दिर का अछूत अान्दोलन के मूल तथा न्याय्य कारणों को यहाँ कपाट खुलवा देते, हरिप्रेमस्रोत में बहा देते, हरिज्ञान दिखाने की आवश्यकता हम नहीं समझते। प्रदीप प्रज्वलित करा देते, हरिभक्ति की आदर्श शिक्षा पुस्तक की भाषा सर्वथा शुद्ध नहीं है, तथा वाक्यों देते, चित्तरूपी तालाब में हरि-प्रेम-तरंग उठा देते, तब का विन्यास भी स्थान स्थान पर शिथिल और विचित्र हरिजन मन्दिर के पत्थर के हरि की अपेक्षा, अपने हृदय- बेढंगा-सा हो गया है। पुस्तक की विषय-सूची में केवल मन्दिर की (?) चेतन देवता प्रत्यक्ष हरि का दर्शन कर हिन्दी का प्रयोग होना चाहिए था। हिन्दी और अँगरेज़ी कई कोटि गुण अधिक कृतार्थ होते।" निःसन्देह स्वामी की खिचड़ी अच्छी नहीं प्रतीत होती । जी के इन उदार विचारों की हम हृदय से प्रशंसा करते।
-कैलासचन्द्र शास्त्री, एम० ए० हैं । परन्तु महाराज परमहंस जी से हमारा नम्र निवेदन इस ८ -अनुराग-वाटिका-लेखक, श्रीयुत वियोगी हरि, विषय में इतना ही है कि आत्म-स्वरूप परमात्मतत्त्व के प्रकाशक, गोपालदास सेवक, साहित्य-सेवा-सदन, काशी दर्शन कराने की बात से हरिजनों के मन्दिर प्रवेश का हैं। पृष्ठ-संख्या ५८ और मूल्य ।-j है। निषेध नहीं होता, प्रत्युत उन्हें श्रात्मदर्शन का अधिकारी यह पुस्तक का दूसरा संस्करण है। श्री वियोगी हरि सिद्ध करके श्राप स्वतः ही उन्हें 'धर्म के गौण अङ्ग' तथा जो व्रज-भाषा के सुकवि हैं। उनकी शैली और उनके 'श्रात्मोन्नति के विकास के लिए अनावश्यक' इन मन्दिरों विषय ऐसे हैं कि उनके पदों में सूर की वाणी की प्रति. में प्रवेश का स्वतंत्र अधिकार प्रदान कर रहे हैं। जो ध्वनि-सी जान पड़ती है । पुस्तक में कुछ दोहे और शेष नेता इस उच्च पद तक हरिजनों को पहुँचाने में किसी भी पद हैं । सभी पद कृष्ण-भक्तिपरक हैं। ऐसा जान पड़ता
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com