________________
सरस्वती
भाग ३६
दी हैं । 'मायावाद' का यह प्रथम भाग है। हमें पूर्ण विवादग्रस्त विषयों को छोड़ देने पर भी. ग्रन्थकार का विश्वास है कि मम्पूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हो जाने पर प्रतिपाद्य विषय-दिगम्बरत्व तथा उसका प्राचीनत्व - हिन्दी के दार्शनिक साहित्य में यह ग्रन्थ उच्च स्थान अक्षुण्ण रहता है। प्राप्त करेगा। इसके लेखक बंगाली है, राष्ट्रभाषा हिन्दी के ११--गोपीचन्द्रोदयम (संस्कृत नाटक)-श्री पण्डित प्रति उनका यह प्रेम प्रशंसनीय है। दर्शनशास्त्र के मणिराम शास्त्रिकृत, पृष्ठ-संख्या ११८; मूल्य ॥) है। प्रेमियों को इस ग्रन्थ का समुचित अादर करके लेखक को पता–पण्डित दुर्गादत्त शर्मा, दयालबाग़, आगरा । उत्साहित करना चाहिए ।
इस नाटक की कथा-वस्तु सुप्रसिद्ध है। राजा गोपी१०-दिगम्बरत्व और दिगम्बर-मुनि-लेखक, चन्द्र अपनी माता मेनावती के उपदेश से राज-पाट छोड़ श्रीयुत कामताप्रसाद जैन, एम० आर० ए० एस०, प्रका- कर अपने मामा योगी भर्तृहरि और योगी जालन्धर के शक, पंडित मंगलसेन जैन, चम्पावती जैन पुस्तकमाला- पास चले जाते हैं। वहाँ गुरु गोरखनाथ से योगप्रकाशन-विभाग, अम्बाला छावनी हैं । पृष्ठ-संख्या ३१६ युक्ति जानकर वे उनके माथ कामाक्षा जाते हैं । वहाँ और मूल्य १) है।
मत्स्येन्द्रनाथ विषय-वासना में फंसे हए थे। गोरख ने वेष नग्न साधुत्रों का जनता में विचरण करना उचित बदल कर उनका उद्धार किया और राजा गोपीचन्द्र ने है या अनुचित, ऐसी प्रथा पहले थी या नहीं, इन्हीं विषयों अपने पराक्रम से सैन्य को परास्त किया और मच्छन्दरपर लेखक ने इस पुस्तक में भली भाँति प्रकाश डाला नाथ तथा गोरखनाथ को अपने तपोवन तक पहुंचने में है। प्राचीन काल से आधुनिक काल तक उनकी इस इस प्रकार सहायता दी। अन्त में गोपीनाथ लौट कर धार्मिक प्रथा में शामकों द्वारा कभी हस्तक्षेप न होना गुरु के पास आये। गुरु ने अपने ही रनवास में जाकर
आदि विषयों को लेखक ने ऐतिहासिक प्रमाणों, साक्षियों भिक्षा लाने के लिए गोपीचन्द्र को कहा। इस परीक्षा में तथा धार्मिक ग्रन्थों के उद्धरणों-द्वारा प्रमाणित किया है। वे उत्तीर्ण हुए। वहाँ से वे गौडदेश (बंगाल) को गये, सम्पूर्ण पुस्तक विस्तृत अध्ययन का परिणाम है । पाश्चात्य जहाँ की रानी चम्पावती ने जब अपने भाई को योगी के देशों में दिगम्बरत्व के पक्ष में विद्वानों और डाक्टरों वेश में देखा तब वह शोक से मूर्छित होकर गिर पड़ी की सम्मतियों का भी इसमें खोज खोज कर समावेश और मर गई । इस पर योगी गोपीचन्द्र बड़े चिन्तित हुए किया गया है। पुस्तक में दिगम्बरावस्था में स्थित जैन और उन्होंने अपने गुरु गोरखनाथ जी का स्मरण किया । तीर्थंकरों तथा जैन मुनियों के आठ-नौ चित्र भी दिये गये गोरख जी ने शिष्य को दुःखी देख दया-चित्त होकर हैं । इस विषय के जिज्ञासुत्रों के लिए इसमें अनेक ज्ञातव्य चम्पावती को पुनरुज्जीवित कर दिया। इसके बाद शिष्यबातें मिलेगी। लेखक ने कुछ वेदमंत्रों से भी, यथा- सहित गोरखनाथ जी अपने आश्रम में चले आये । लेखक "अातिथ्यरूपं मासरं महावीरस्य नग्नहुः” इत्यादि यजु- ने इस नाटक को प्राचीन शैली पर ही लिखा है । भाषा वेंद-मंत्र से स्वामी महावीर तथा उनका नग्नत्व सिद्ध करने प्राञ्जल, और रचना प्रौढ़ है। नाटक में कथा का निर्वाह का प्रयत्न किया है। यह न केवल विवादास्पद है अपितु बड़ी कुशलता से हुअा है। नाटक में शान्तरस है । उपहासास्पद भी है। वेदों का समय पाश्चात्य विद्वानों स्त्री-पात्रों की भाषा प्राकृत है। इस प्रकार प्राचीन शैली की दृष्टि में भी महावीर स्वामी से पूर्व का है। फिर जिस का पूर्ण निर्वाह हुअा है। संस्कृत-रसिकों को इसका अवमंत्र का उद्धरण दिया गया है उसका 'देवता' तो सर्वानु- लोकन अवश्य करना चाहिए । नाटक के अन्त में लेखक क्रमणिका में 'सोम' कहा गया है न कि स्वामी महावीर। की कुछ हिन्दी-कवितायें भी हैं जो साधारण हैं। नाटक महावीर स्वामी बुद्ध के समसामयिक थे, यह बात आज की कथा हिन्दी में भी परिशिष्ट में दे दी गई है। इतिहास से बहुत-कुछ निश्चित हो चुकी है। अस्तु, इन । १२-वैदिक भूगोल-लेखक, बाबू नारायणप्रसाद
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com