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संख्या ५]
नई पुस्तके
४६१
सन्ध्या के दृश्य, वस्तु और व्यापारों के वर्णन के द्वारा सामर्थ्य और रुचि के अनुसार दृष्टि-भेद का अवलम्बन प्रकृति देवी के चरणों में अपनी काव्यकुसुमाञ्जलि अर्पित करके, विचार-भेद कैसे होता है और उससे सिद्धान्त-भेद की है। संस्कृत-छन्द द्रुतविलम्बित में सम्पूर्ण पुस्तक कैसे होता है। इसलिए विचारवानों के लिए इस विद्या लिखी गई है। पुस्तक की भाषा सरल और प्रायः अपने का अनुशीलन कुतूहलप्रद है। प्रकृत सिद्धान्त या चरम स्वाभाविक चलते रूप में ही दृष्टिगोचर होती है। संस्कृत- सिद्धान्त क्या है, इस विषय में काई सर्वसम्मत उत्तर नहीं वृत्त में ऐसी भाषा एवं ऐसी सरल शैली का निर्वाह करना दिया जा सकता।" अासान नहीं है । पुस्तक की कविता सरस और सुन्दर प्रस्तावना के अनन्तर विषयों की सूची तथा उसके । हुई है। लेखक की कृति में संस्कृत-काव्यों के भावों की बाद प्रथम भाग में आनेवाले नव्यन्याय के कठिन पारिझलक होते हुए भी नूतन उद्भावनाओं की कमी नहीं है। भाषिक शब्दों की विशद व्याख्या दी गई है। इन पारिएक उदाहरण देखिए जो 'संध्या-सख्य' नामक शीर्षक भाषिक शब्दों को बिना ठीक ठीक समझे भारतीय दर्शनसे लिया गया है
शास्त्र में प्रवेश करना असम्भव है, यह बात तो दर्शन"मुकुल पद्म कमण्डलधारिणी, .
शास्त्र पढ़नेवाला प्रत्येक विद्यार्थी जानता ही है। इस _ विधु-विभूति-विभूति-विभूषिता ।
दृष्टि से विशद व्याख्या-सहित पारिभाषिक शब्दों की यह . अजिन-ध्वान्त दबा कर यामिनी,
सूची परम आवश्यक और दर्शन-ग्रन्थों के समझने के लग रही वह आज समाधि में ॥" लिए परमोपयोगी है। . हमें आशा है, शास्त्री जी निकट भविष्य में अपनी ग्रन्थ में (१) आकस्मिकवाद, (२) असत्कार्यवाद, अधिक उत्तम कविताओं से हिन्दी-साहित्य को विभूषित (३) सत्कार्यवाद, (४) सदसत्कार्यवाद तथा (५) अनिर्वकरेंगे। पुस्तक काव्य-रसिकों के लिए दर्शनीय है। चनीयवाद का विशेष विवेचन हा है। न्याय, वैशेषिक.
९-मायावाद (अद्वैत सिद्धान्त विद्योतन) (प्रथम प्राभाकर, सांख्यादि मतों का पूर्वपक्ष, उनकी शंकायें तथा भाग)-लेखक श्री साधु शान्तिनाथ हैं । पृष्ठ-संख्या ६८ उनका खण्डन करके सिद्धान्त-पक्ष का स्थापन प्रबल है । मूल्य पुस्तक पर नहीं लिखा है । पता-साधु शान्ति- युक्तियों द्वारा किया गया है। प्रत्येक अनुच्छेद पूर्वपक्षी, नाथ, मंगलभुवन, पंचवटी, नासिक।
सिद्धान्ती, शंका तथा समाधान नामक शीर्षकों में बँटे यह उच्च कोटि का एक दार्शनिक ग्रन्थ है। इस होने के कारण प्रतिपाद्य विषय के समझने में बड़ी सरलता ग्रन्थ में मायावाद का प्रतिपादन किया गया है। पुस्तक हो गई है। इस शैली का दार्शनिक ग्रन्थों में समावेश की 'प्रस्तावना' में लेखक ने प्रौढ़ तर्क के आधार पर यह होने से पाठक को कौन पूर्व-पक्ष है और कौन सिद्धान्त-पक्ष, सिद्ध किया है कि "तर्काप्रतिष्ठानात्" वचन असंगत है। यह समझने में ज़रा भी अड़चन नहीं हो सकती। इसी प्रस्तावना में लेखक ने दर्शनशास्त्र-द्वारा मोक्षविषयक इन दुरूह युक्तियों के सहारे भिन्न भिन्न सिद्धान्तों का अशेष कल्पना को “अनुभवविवर्जित, विचारविगर्हित पहले स्थापन और फिर उनका खण्डन करके मायावाद तथा श्रद्धजडताविजम्भित" सिद्ध करने के लिए अपने का प्रतिपादन लेखक ने इस ग्रन्थ में बड़े परिश्रम, खोज आगे प्रकाशित होनेवाले 'धर्म-विमर्श' नामक ग्रन्थ की तथा कुशलता से किया है। ओर संकेत किया है।
लेखक की शैली दार्शनिक विषयों के सर्वथा उपयुक्त ___दर्शनशास्त्र के विचार का फल क्या है ? इस प्रश्न है। भाषा भी सरल तथा शुद्ध है। प्रखर प्रक्रिया ग्रन्यों का उत्तर लेखक ने इस प्रकार दिया है-"उससे तत्त्व- से और गुरुचरणों में बैठकर जो बातें जानी जाती हैं, विषयक नाना प्रकार के सिद्धान्तों का परिचय होता है। उनमें से अनेक बातें इस ग्रन्थ में हिन्दी-भाषा-द्वारा दर्शनशास्त्र के मनन से अवगत होता है. कि व्यक्तिगत लेखक ने दर्शनशास्त्र के प्रेमियों के लिए सुलभ कर
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