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सरस्वती
लिये हुए कुली आते हैं । यहाँ से रानीखेत या रामनगर को दूसरे कुली र डाँडी लेनी पड़ती है ।
रास्ते में बहुत से यात्री मिले। उनमें अधिकतर स्त्रियाँ थीं । वे बहुत थकी हुई थीं । मुकाम पर पहुँचने के लिए फिर चढ़ाई मिली । ३ या ४ ही फ़लांग में धूप के समय मेरे आदमियों की सब गति हो गई । पर मुकाम ठंडा था । वहाँ जाकर आराम मिला ।
शाम को मैं चट्टियाँ देखने गया । यहाँ चड्डी बनिये की दूकान को कहते हैं । यह कहीं दो मंज़िला होती है, कहीं एक मंज़िला । रास्ते भर में एक-एक, दो-दो मील पर बराबर चट्टियाँ मिलती जाती हैं। कोई चट्टी साफ़सुथरी, कोई गंदी होती है। यात्री लोग यहीं खाना पकाते हैं और नज़दीक ही पाखाना - पेशाब भी करते हैं । इस कारण यात्रा मार्ग में मक्खियाँ बहुत ज्यादा हो गई हैं । इसी लिए गढ़वाल - जिले के सरकारी अफ़सर जहाँ तक बन पड़ता है, यात्रा मार्ग को छोड़कर चलते हैं। यात्रा मार्ग में खाने-पीने का सामान भी महँगा मिलता है, चीज़ें भी अच्छी नहीं मिलतीं । जो यात्री अपने साथ खाने-पीने का सामान ले जाना चाहते हैं उनको कुली-भाड़ा तो देना ही पड़ता और ठहरने को जगह भी नहीं मिलती, क्योंकि बनिया उन्हीं को ठहरने देते हैं जो उनके यहाँ सामान खरीदते हैं, इसी लिए यात्री लोग अपने साथ सामान नहीं ले जाते हैं ।
४-६- ३५ को लोहवा से त्रादिवदरी आया । ११ मील का पड़ाव था । ३ मील से ज्यादा चढ़ाई पर पैदल चला । रास्ते में ५ मील चढ़ाई और ५ मील उतार था । ज्यों ज्यों बदरीनाथ जी निकट आते जाते थे, लौटनेवाले यात्रियों की संख्या बढ़ती जाती थी। मुझे अजमेर, जोधपुर, जयपुर, आगरा, ग्वालियर, बुंदेलखंड, लखनऊ, खीरी, सीतापुर और रायबरेली के यात्री मिले। कोई कोई यात्री अपने साथ छोटे छोटे बच्चे भी लाये थे । घोड़ा, देशी
प्पान, कंडी और डाँडी की सवारियों पर कमज़ोर स्त्री और मर्द जा रहे थे । सवारी के घोड़े कम थे । लद्द् घोड़ों पर ही असबाब लाद कर उसी पर औरतें और मर्द बैठे थे । प्पान तो मामूली लकड़ियों का बना था और उसमें मचिया
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[ भाग ३६
की तरह बैठने की जगह थी । यह कंडी से ज्यादा आराम देनेवाला है और इसको भी चार आदमी लेकर चलते हैं। कंडी एक बड़ा भावा-सा लम्बा लम्बा होता है, जिसमें पैर बाँधकर बैठना होता है और उसे एक आदमी अपनी पीठ पर लाद लेता है । इस आदमी के हाथ में एक नोकदार लकड़ी चलने में सहारा देने के लिए और एक देवकी होती है । देवकी ( का आकार ) पर वह सहारा 1 लेकर खड़ा हो जाता है 1
मैं दिबदरी १० बजे से पहले पहुँच गया । यह एक छोटी जगह है । यहाँ सत्यनारायण व बदरीनाथ जी के मंदिर हैं। शाम को आरती के समय दर्शन किये। यह स्थान 'पंच बदरी' में नहीं है । मंदिर पुराने ज़रूर हैं। और सरकार की तरफ़ से संरक्षित भी हैं । यहाँ के एक आदमी से मालूम हुआ कि उस स्थान के निकट ही टेहरी के पुराने राजाओं की राजधानी थी और इसी मंदिर में उन्होंने अपने कुल देवता श्री बदरीनाथ को स्थापित किया था । भूकंप में सब स्थान नष्ट हो गया है। केवल बदरीनाथ का मंदिर कुछ टेढ़ा होकर बच गया है ।
पहाड़ पर मैंने खाने-पीने की बड़ी एहतियात की । पानी गरम करके पिया और ज्यादातर दलिया ही खाया । तिस पर भी पेट ठीक नहीं रहा, चूरन का प्रबंध करना
पड़ा ।
५-६- ३५ को कर्णप्रयाग पहुँच गया । यह मुक़ाम १२ मील पर था । जो उतार कल शुरू हुआ था वही आज शिमली तक रहा। शिमली से कर्णप्रयाग ४ मील है । शिमली में पिंडरगंगा के दर्शन हुए। यह नदी पिंडारी ग्लेशियर से निकली है और कर्णप्रयाग में अलकनंदा से मिल गई है। जहाँ दो नदियाँ मिलती हैं उसी को यहाँ 'प्रयाग' कहते हैं। सुबह को चलते वक्त संगम में स्नान किया ।
६-६-३५ को सोनला में ठहरा था, परन्तु डाकबँगला बिलकुल सुनसान जगह था। कोई दूकान भी नज़दीक न थी । मेरे पास कुछ काम भी न था । इसलिए ३ मील आगे नन्दप्रयाग चला गया । नन्दप्रयाग में नन्दाकिनी और अलकनन्दा का संगम हुआ है । नन्दा
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