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सरस्वती
[भाग ३६
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[सर सीताराम कार्क्सबाद (योरप) में अपनी मित्रमंडली के सहित]
पूर्व इनके पूर्वज मुग़ल-शासन-काल में कानूनगो थे। गई। उसके बाद ये इलाहाबाद भेजे गये और १६ वर्ष उस समस कानूनगो की पदवी महत्त्व-पूर्ण समझी जाती थी। की आयु में सफलतापूर्वक इलाहाबाद-यूनिवर्सिटी से सम्राट का शाही फ़रमान भी इनके एक वंशज के पास बी० ए० की परीक्षा में सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुए । सन् है। इनका कुटुम्ब ‘कानूनगोयान' कहलाता था । कानूनगो- १६०६ में एम० ए० तथा एल-एल० बी० में भी कृतवंशवाले मेरठ के समीप 'मलियाना' ग्राम में रहते थे। कार्य्यता प्राप्त की। इनकी दूसरी भाषा संस्कृत थी। विवाह आदि संस्कारों में इनके घर के लोग अब भी संस्कृत की विशेष योग्यता के कारण ये 'पंडित' शब्द से पूर्वजों के देवता पूजने के लिए वहाँ जाते हैं। कहते हैं संबोधित किये गये, इसी लिए ये लाला सीताराम की। कि इनके पूर्वज बड़े धर्मज्ञ और सत्य-प्रतिज्ञ थे, जिनकी बात अपेक्षा पंडित सीताराम के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं।। पत्थर की लकीर के समान अचल और दृढ़ होती थी। जातीय सुधार और सार्वजनिक सेवा-शिक्षायह भी कहा जाता है कि वे पत्थर का व्यवसाय करते समाप्ति के पश्चात् इन्होंने कुछ समय तक मेरठ में वकालत थे। इन्हीं कारणों से इनके पूर्वज 'पत्थरवाले' विख्यात की, परन्तु इनके परोपकारी हृदय में सेवाभाव के उदय हुए। इनके पूज्य पितामह लाला हरसहायमल मेरठ में होने से वकालत को स्थगित करना पड़ा। सन १६०८ में अपने समय के बड़े साहसी, निर्भीक और हिन्दू-जाति के 'आल इंडिया वैश्य कान्फरेंस' का वार्षिक महोत्सव था। स्तंभ माने जाते थे। उनके सुयश की अनेक बातें अब ये वैश्य-महासभा के स्वयंसेवक-दल के अध्यक्ष थे । उन्हीं तक लोगों में प्रचलित हैं।
दिनों स्वर्गीय लाला लाजपतराय जी मंडाले-जेल से मुक्त। शिक्षा-प्रारम्भिक शिक्षा इनको मेरठ में ही दी होकर वैश्य-कान्फरेंस में पधारे थे। उस समय इन्होंने
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