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गीत
[हिन्दी के आधुनिक कवियों में श्रीयुत सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का अपना एक विशेष स्थान है। वे कवि ही नहीं काव्य-मर्मज्ञ और वेदान्ती भी हैं। हिन्दी में वे गीतों के प्रवर्तक माने जाते हैं । 'सरस्वती' के लिए उन्होंने दो गीत भेजे हैं। पाठक उनका आनन्द ले।]
निशिदिन तन धूलि में मलिन; क्षीण हुआ मन छन छन, छिन छिन ।
ज्योति में न लगती रे रेणु; श्रुति-कटु स्वर नहीं वहाँ,
वह अछिद्र वेणु; चाहता, बनें उस पग-पायल की रिन रिन ।
व्यर्थ हुआ जीवन यह भार; देखा संसार, वस्तु
वस्तुतः असार; भ्रम में जो दिया, ज्ञान में लो तुम गिन गिन ।
घन, गर्जन से भर दो वन, तरु-तरु पादप-पादप तन।
अब तक गुञ्जन-गुञ्जन पर नाची कलियाँ, छबि निर्भर; भौरों ने मधु पी पीकर
माना, स्थिर मधु-ऋतु कानन । गरजो, हे मन्द्र, वज्र-स्वर, थर्राये भूधर-भूधर, झरझर-झरझर धारा झर पल्लव-पल्लव पर जीवन ।
दुर्दम वर्षा-वर्षण पर जीवित हो हर्ष वर्ष भर, जन-जन को कोमल-तन कर दो हे विसव के मावन !
लेखक, श्रीयुत सूर्यकान्त त्रिपाठी
"निराला"
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