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सरस्वती
[भाग ३६
एक संभ्रान्त वंश में हुआ था। बचपन से ही वे बड़े । मेधावी थे। उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। वे अच्छे । दार्शनिक, सुन्दर लेखक, दक्ष चित्रकार तथा मूर्तिकार और । पक्के साधक थे। वैसी सर्वतोमुखी प्रतिभा के पुरुष । जापान में कम हुए हैं। ८०४ ईसवी में वे अध्ययनार्थ । चीन गये। वहाँ से लौटने पर राजधानी क्योतो में उनका । बड़ा सम्मान हुअा। जब उन्हें अपने मठ के बनाने की। आवश्यकता हई तब क्योतो राजधानी के आस-पास की जगह न पसंद कर उन्होंने अपने लिए अनुकल स्थान खोजना शुरू किया। कहते हैं, जब वे कोयासान् की जड़ । में आये तब पास के देवता ने शिकारी का रूप धारण कर काले और सफ़ेद दो कुत्तों के साथ उन्हें रास्ता बतलाया। पहाड़ के ऊपर अपेक्षाकृत चौरस तथा देवदार से हरीभरी उपत्यका को देख वहीं उनका मन लग गया और उन्होंने वहाँ अपने मठ की स्थापना की। ८३५ ईसवी में | देहान्त होने पर उनका शरीर भी वहीं अोकुनो-इन् में |
कोबोदाइशी (७७४-८३५ ई०)]
बैठने के साथ पानी में उबला गर्मागर्म तौलिया मुँह हाथ पोंछने के लिए आ गया और थोड़ी ही देर में पीत वस्त्रधारी भिक्ष मीज़हारा सान् भी आ गये। आप कोयासान के पाठ सौ भिक्षुत्रों में बड़े प्रतिष्ठित साधु हैं । भिक्षुनियमों के पालन का भी आपको बहुत ध्यान रहता है, इसलिए घर के भीतर प्रायः भिक्षत्रों के पुराने पीले वेष में ही रहा करते हैं। हमारे मेज़बान को जापानी के अतिरिक्त किसी दूसरी भाषा का कोई एक शब्द नहीं मालूम था, इसलिए हमने अपने जापानी सौ शब्दों के कोष से काम चलाया। रात को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि यहाँ क्योतो जैसी मच्छरों की श्राफ़त नहीं।
कोयासान् का माहात्म्य भारतीयों को समझाने के लिए कुछ विशेष लिखने की आवश्यकता है। कोयासान्विहार के संस्थापक कोबोदाइशी का जन्म ७७४ ईसवी में
[बाबू आनन्दमोहन जी]
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