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संख्या ५]
कोयासान्
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की चित्र-प्रदर्शनी समझे। मोतोनोबु, तन्साई, तोएकी जैसे अमर चित्रकारों की अमर कृतियाँ यहाँ चलभित्ति-फलकों पर अंकित हैं।
और मंदिरों की भाँति इस मंदिर में भी कई बार आग लगी है, किन्तु चित्र खिसकनेवाले पट फलकों पर होने से बचाये जा सके हैं। एक कोने में वह कमरा है, जिसमें तरुण हिदेसुगु ने शत्रुओं के हाथ में जीते पड़ने से बचने के
[ गोसामइ-इन् (पर्णकुटी)] लिए हराकिरी की थी। हिदेत्सुगु तत्कालीन जापान के शासक हिदेयाशी का पोष्य ताकिगुची एक मठ में जा साधु हो गया। किन्तु क्योतो पुत्र था, किन्तु पीछे विमाता की ईर्ष्या के कारण हिदेयाशी के उस मठ में भी जब-तब उसकी प्रेमिका पहुँचने लगी। (१५३६-६८ ई०) के कोप का भाजन बना।
तब वह भाग कर कोयासान् के इसी मठ में रहने लगा। मंदिर के एक बग़ल में वह कमरा भी है जिसमें प्रेमिका वन वन की खाक छानती फाटक पर पहुंची, जापान के कितने ही पुराने सम्राट अाकर रह चुके हैं। किन्तु फाटक के भीतर स्त्री का प्रवेश तो निषिद्ध था। एक बग़ल में और कितने ही कमरे हैं जिनमें पिछली प्रेमिका कितने ही समय तक अपने प्रेमी की झाँकी के एकादश शताब्दी महोत्सव के अवसर पर कितने ही प्रिंस, लिए न्यो निन्-दो के बाहर बैठी रही। आखिर निराश हो कौंट और बैरन आकर रहे थे। इन कमरों में जापान के उसने नदी में कूद कर आत्महत्या कर ली। मरने के बाद कितने ही आधुनिक चित्रकारों के चित्र-फलक हैं। वह बुलबुल हुई । अब भला किसकी मजाल थी, जो कोई
अब पीले कपड़ों-द्वारा बाज़ारवालों का मनोरंजन योकोबुए को भीतर आने से रोकता। वह नित पाकर कराते हम शोजोशिन् विहार में पहुँचे। यह कोयासान् के अपने प्रेमभाजन की कुटिया के सामनेवाले वृक्ष पर बैठ मठों में सर्वसुंदर समझा जाता है। पुराने चित्रों और कर शब्द किया करती थी। किन्तु उसके प्रेमी को इसकी मूर्तियों का यहाँ भी अच्छा संग्रह है। पीछे की खबर न थी। आखिर बुलबुल चिन्ता से कृश होते होते
ओर पहाड़ की जड़ में इसका क्रीडा-उपवन तो एक दिन क्रीड़ा-पुष्करिणी में डूब कर मर गई। भिक्षु लाजवाब है। इस विहार से दो प्रेमियों की कथा ने अपने हाथ से उठा कर दाह-कर्म किया। कालान्तर का घनिष्ठ सम्बन्ध है। ताकीगुची एक संभ्रान्त सामु- में भिक्ष ने भी शरीर छोड़ दिया। कहते हैं, उसके बाद राई (राजपूत) था। इस सुन्दर तरुण का घर की दोनों उस लोक में गये, जहाँ उनके प्रेम में न पिता बाधा परिचारिका योकोबुए से प्रेम हो गया। दोनों ब्याह कर दे सकता है, न माता, न जाति रुकावट पैदा कर सकती है, लेना चाहते थे। किन्तु राजपूत पिता अपने पुत्र की शादी न सम्बन्धी । जहाँ नित्य निरन्तर मिलन के ही दिन और / नीच कन्या से क्योंकर होने देता । आखिर निराश हो मिलन की ही रातें हैं।
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