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लेखक के "शेष स्मृतियाँ" नामक अप्रकाशित ग्रन्थ के अन्तिम लेख का प्रारम्भिक अङ्क ।
पृथ्वी पर स्वर्ग !
लेखक, महाराजकुमार रघुवीरसिंह
एम० ए०, एल-एल. बी.
र वे भी दिन थे जब पत्थरों पत्थरों ने अपने प्रेमियों को अपने गले के उन हारों तक का यौवन फूट निकला को अमरत्व प्रदान किया ! था, उनके मदमाते यौवनये पत्थर उस पार्थिव स्वर्ग के पत्थर थे, भारतकी रेखायें उभरी पड़ती सम्राट ही नहीं, किन्तु भारतीय साम्राज्य, भारतीय । थीं, उन्हें भी जब शृंगार समाज तथा कला भी जिस स्वर्ग में बेहोश विचरते की सूझी थी, जब बहुमूल्य थे ! उन पत्थरों की सजीवता पर, उनकी मस्ती पर,
रंग-बिरंगे सुन्दर रत्न भी उनके निरालेपन पर, उनकी बाँकी अदा पर, उनके उनकी बाँकी अदा पर मुग्ध होकर उन कठोर निर्जीव उभरते हुए यौवन के आकर्षण से, संसार मुग्ध था, पत्थरों से चिपटने को दौड़ पड़े, उनका चिर सहवास उनके पैरों में लोटता था, उनको जी भर देख लेने प्राप्त करने को लालायित हो रहे थे और चाँदी-सोने को पागल की नाई , आँख फाड़ फाड़ कर देखता ने भी जब उनसे लिपट कर गौरव का अनुभव किया था, उनकी मस्ती के सहस्रांश को भी पाने के लिए था। वे पत्थर अपनी उठती हुई जवानी में ही मतवाले बालक की तरह मचलता था, रोता था, बिलखता हो रहे थे, सुन्दरता छलकी पड़ती थी, कोमलता को था......परन्तु वे पत्थर, पत्थर ही तो थे, फिर उन भी उनमें अपना पूर्ण प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता था, पर यौवन का उन्माद... ..अपनी शान में ही ऐंठे और तब उन श्वेत पत्थरों में भी वासना और जाते थे, अपने मतवालेपन में ही झूमते थे, अपने आकांक्षाओं की रंग-बिरंगी भावनायें झलकती थीं। अमरत्व का अनुभव कर इतराते थे। गले से लगे उन यौवनपूर्ण, सुडौल, सुन्दर पत्थरों के वे आभूषण, हुए, अपने प्रेमी पुष्पों की ओर एक नज़र डालने को वे सुन्दर पुष्प......सच्चे सुकोमल पुष्प भी उनसे भी जो ज़रा न झुके,......संसार की, दुखपूर्ण मृत्युचिपटकर भूल गये अपना अस्तित्व, उनके प्रेम में मय संसार की भला वे क्यों परवाह करने लगे! पत्थर हो गये, उन पत्थरों में सजीवता का अनुभव पत्थर, पत्थर......अरे ! उस भौतिक स्वर्ग के कर चित्रलिखित-से रह गये ! और उन मदमाते पत्थरों तक में यौवन छलक रहा था, उन तक में
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