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संख्या ४]
भूषण का महत्त्व
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खाय के बिलाई बैठी तप के।" यह सुनकर बाद- कैसी सिटपिटाई हुई भगती हैं कि उनको अपने शाह का चेहरा अभी तमतमा कर जलने ही वाला वस्त्राभूषणों और स्त्री-लज्जा-सुलभ अंगाच्छादन था कि दरबार के कई सत्यप्रिय कवि और राजपूत का भी भान नहीं रहता। इस वर्णन में विनोद“शाबास भूषण ! शाबास !" कहने लगे। बादशाह विहारीजी को श्रृंगार, कामुकता और नायिकाभेद की क्रोधाग्नि में मानो आहुति-सी पड़ गई। तलवार कहाँ से दिखाई पड़ गया, सो हमारी समझ में नहीं खींचकर औरंगजेब स्वय भूषण को मारने उठा; पर आया। न्यायप्रिय मुसाहिबों ने प्रतिज्ञा-भंग और अपकीर्ति इसमें सन्देह नहीं कि वह रीति-ग्रन्थों का युग का डर दिखला कर औरंगजेब को रोक लिया। था। सभी कवि अलंकार के ग्रन्थ बनाते थे; और भूषण जी तुरन्त ही दरबार से बाहर निकल आये; भूषण कवि ने भी “शिवराजभूषण" अलंकार का
और घर आकर अपनी कबूतरी उर्फ केसर नाम की ग्रन्थ बनाया है; परन्तु विनोदविहारी जी को यह घोड़ी सजाकर दक्षिण की ओर चल पड़े। मालूम होना चाहिए कि उस शृंगारिक युग में भी
विनोदविहारी जी महाकवि भूषण की रचना यही एक वीर कवि है कि जिसने उस समय की प्रखर को शृंगारिक और कामुकता-पूर्ण सिद्ध करते हुए श्रृंगारधारा में न बहकर, "मुरारेस्तृतीयः पन्थाः" के लिख रहे हैं---
न्याय से, अपना एक अलग ही मार्ग निश्चित "वह असल में रीति-ग्रन्थों का युग था। सभी किया। उसने शिवाजी और छत्रसाल के समान कवि अलंकार के ग्रन्थ बनाते थे और नायिका-भेद वीरपुंगवों को अपनी कविता का नायक बनाया; लिखते थे। युग के प्रभाव से भूषण भी नहीं बचे। और अपने अलंकारग्रन्थ में भी शृंगारिकता और उनका शिवराजभूषण अलंकार का ही ग्रन्थ है और नायिका-भेद को फटकने तक नहीं दिया-अपने सब शिवाबावनी के कवित्तों में भयत्रस्त मुग़ल-स्त्रियों का उदाहरण ऐतिहासिक और वीर रस के प्रस्तुत किये । वर्णन नायिकाभेद का ही एक स्वरूप है।"
ऐसे वीर कवि के प्रति कृतज्ञता न दिखलाकर विनोदविहारी जी! आपकी सूझ और जान- उसको शृंगारिक, कामुक, असमर्थ, अपाहिज, कारी की बलिहारी है। वैरिवधुओं का भूषण कवि इत्यादि शब्दों से लाञ्छित करना घोर कृतघ्नता है । ने जो वर्णन किया है, उसी पर से इस कवि को यह बात भारत के समान पराधीन देश में ही शृंगारिक और कामुकता-प्रिय सिद्ध करने की आपकी सम्भव है; और हिन्दी के इन गैर जिम्मेवार लेखकों युक्ति बहुत ही अनूठी है। आपको मालूम नहीं ने तो अपने प्राचीन कवियों को लाञ्छित और अपहै कि युद्ध का वर्णन करते हुए सभी बड़े कवियों ने मानित करने का मानो ठेका ही ले रक्खा है-यही वैरिवधुओं की दुर्दशा का, किसी न किसी रूप में, भूषण कवि यदि कहीं पश्चिमी देशों में होता तो वर्णन किया है । भूषण के कवित्तों को पढ़कर आपके आज उसकी जन्मभूमि टिकवांपुर में उसका सुन्दर समान शायद ही किसी लालबुझक्कड़ के हृदय में भव्य स्मारक दिखलाई देता; और उस वीर कवि श्रृंगारिक अथवा कामक-भाव पैदा हो जायँ। का गौरव करने के लिए वहाँ उसके नाम पर मेला अन्यथा साधारण तौर पर उन कवित्तों को पढ़कर लगता ! पाठक के हृदय में करुणा और उन स्त्रियों के प्रति याद रखिए, यह भूषण कवि की ही कविता की दया के भाव ही उठेंगे। हाँ, भूषण का वर्णन करने करामात है जो आज छत्रपति शिवाजी को उत्तर का ढंग चमत्कार-पूर्ण ज़रूर है; और यही उनका भारत में इतना राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त हो सका है। कवि-कौशल है। शिवाजी के आतंक से यवन-स्त्रियाँ हिन्दी-भाषी प्रान्तों के ग्राम ग्राम में शिवाजी के यश
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