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नई पुलक
१-२-श्रीयुत बच्चन जी की दो रचनायं पास-द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की, (१) खय्याम की मधुशाला-फ़िट्ज़ज़ेरेल्ड-कृत विश्व-विजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला ।। 'रुबाइयात उमर खय्याम' को पढ़कर हिन्दी में उसको कवि की यह फिटकार पढ़कर कुछ हिम्मत तो न होती उपस्थित करने की स्फूर्ति कई कवियों को प्राप्त हुई है। थी, पर चूँकि थोड़ी-सी मैंने भी पी ली है, इसलिए उसके कविता कवि की आत्मा है, शरीर नहीं। शरीर को रूप स्वाद का ज़िक्र तो ज़रूर करूँगा । उमर खय्याम एक प्रदान किया जा सकता है, आत्मा को नहीं । इसी प्रकार दार्शनिक कवि थे। उनका जीवन सादगी से भरा हुआ महत् कवि के महत् भावों का रूप-प्रदान कर देना सुलभ था। वे क्या चाहते थे. यह नीचे लिखे पद से स्पष्ट हो नहीं । खय्याम दार्शनिक व्यक्ति थे। उनकी कविता तत्त्व- जायगा। ज्ञान का निदर्शन करती है। इतना ही नहीं, वे जो कुछ धनी सिर पर तरुवर की डाल, हरी पाँवों के नीचे घास, थे और उन्होंने अपनी मधुशाला में जो कुछ पाया, उसे एक बग़ल में मधु मदिरा का पात्र, सामने रोटी के दो ग्रास । अँगरेज़ी अनुवाद से एक दूसरी भाषा में अनुवादित कर सरस कविता की पुस्तक हाथ और सबके ऊपर तुम प्रान, देना भी कठिन काम है । श्रीयुत बच्चन जी हिन्दी के एक गा रही छेड़ सुरीली तान, मुझे अब मरु, नन्दन-उद्यान ॥ सफल कवि हैं, उनकी कविता में प्रवाह है और उनके उमर खय्याम मदिरा पीने लगे थे, क्योंकि इसका भावों में भावोन्माद । अतएव जहाँ तक बना है, उन्होंने नशा उन्हें उनकी दार्शनिक साधना से विमुख होने से फ़िट्ज़ज़े रेल्ड-रचित रचना को अपने शिल्प-चातुर्य से बचाये रखता था। इसी लिए मदिरा पीने पर उनका मानहिन्दी में उपस्थित करने का प्रयत्न किया है। इस प्रयत्न सम्भ्रम सब कुछ चला गया, परन्तु उन्होंने कभी भी में उन्हें बहुत कुछ सफलता भी मिली है। विश्वास है, मदिरा को हेय नहीं समझा। उन्हें आश्चर्य होता था कि हिन्दी-प्रेमी उनकी इस रचना का अवश्य आदर करेंगे। यह दीन कलाल दो-चार ताँबे के टुकड़ों पर उसे क्यों लुटा पुस्तक छोटे श्राकार की सौ पृष्ठों की है। सजिल्द है, रहा है ! उन्होंने कहा हैमूल्य ||) है।
किया मदिरा ने मुझसे घात मान की पगड़ी मेरी छीन, (२) मधुशाला-यह एक मौलिक रचना है, अपनी मगर, कब उसको समझा हेय, मगर कब उसको समझा हीन ? मधुशाला का परिचय लेखक ने इस प्रकार दिया है- मुझे प्रायः इस पर आश्चर्य, बेचता मद क्यों दीन कलाल, भावुकता-अंगूर-लता से खींच कल्पना की हाला, कहाँ ताँबे के टुकड़े चार, कहाँ भाविक-सा उसका माल ? कवि बनकर है साकी पाया भरकर कविता का प्याला । कभी न कण-भर खाली होगा, लाख पियें दो लाख पिये, दर्शनों का सीखा सिद्धान्त, गणितविद्या सीखी दे ध्यान, पाठकगण हैं पीनेवाले पुस्तक मेरी मधुशाला ॥ खपाया ज्योतिष में मस्तिष्क, बढ़ाया जड़-जीवों का ज्ञान ।
आगे चलकर कवि ने एक गर्वोक्ति की है। उसे भी जगत की ज्वाला से मैं तृप्त, जलाशय ज्ञान-विवेक अनेक, देखिए
मगर सब छिछले, उथले, क्षीण मिला बस प्याला गहरा एक ! बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला, उमर खय्याम की आयु परिपक्व हो चुकी थी, विचारपी लेने पर तो जायेगा पड़ उसके मुँह पर ताला। शक्ति व्यापक, दृष्टि निगूढ़ और अनुभूति महान् ! पर
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