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हैं तब उस सड़ी-गली घास में एक मजबूत घोंसला बनाया जाता है। इसकी दीवारें कोमल कोमल दह नियों को बुनकर बनाई जाती हैं। इस प्रकार एक गज़ ऊँचा और चार फुट व्यास का एक टीला खड़ा हो जाता है । छः या नौ दिन बाद पक्षी वापस
सरस्वती
कर टीले को खोलता है और मादा उसमें एक अंडा दे देती है । फिर वह तीन तीन दिन बाद आकर एक एक अंडा देती जाती है । सब मिलाकर वह १४ अंडे देती है। हर बार टीले को खोलकर अंडा देने के बाद फिर बन्द कर दिया जाता है। सूर्य के ताप से गड्ढे की फफूँदी में खमीर उठने लगता है। इससे कोई ९० दर्जे का स्थिर तापमान पैदा हो जाता है और पेरू के अंडे पककर बच्चे निकल आते हैं। यदि मौसम बहुत अधिक गरम हो जाता है तो पेरू टीले के इर्द-गिर्द की रेत को पोला कर देते हैं ताकि अंडों को ठंडी हवा लगती रहे । ४५ दिन में चूजे निकल आते हैं और भूमि में से ऊपर चढ़कर चंपत हो जाते हैं। पहले लोगों की धारणा थी कि यह सब क्रिया पेरू विचारपूर्वक करता है । परन्तु अब मालूम हुआ है कि ऐसी बात नहीं ।
विद्वानों की शताब्दियों तक यही धारणा रही है कि पक्षियों में बहुत बड़ी बुद्धि होती है । परन्तु प्राणि-शास्त्रियों का अध्ययन दिन पर दिन बढ़ रहा है। पक्षियों के स्वभाव के सम्बन्ध में अब उनका ज्ञान पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है। अब उन्हें इसका ज्ञान हो गया है कि पक्षियों में विचार-शक्ति बिलकुल नहीं | उनको इसकी आवश्यकता भी नहीं । उनके सभी चातुर्यपूर्ण जटिल कार्यों में सहज ज्ञान ही उनका पथ-प्रदर्शन करता है ।
न्यूयार्क में जीव-विद्या के अजायबघर के डाक्टर रावर्ट कुशमन मर्फी का मत है कि " तोते, कौए और गवैये पक्षियों जैसे उच्च कोटि के पक्षियों में भी विचार करने का यन्त्र बहुत कम होता है। उनका मानसिक यंत्र मनुष्य की अपेक्षा कीड़े के यन्त्र से अधिक मिलता है। पक्षियों में सहज ज्ञान
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का यन्त्र रहता है, और वे इस बात को न जानते हुए कि हम अमुक काम क्यों करते हैं, उस काम को करते हैं; उनका जीवन उत्तेजनाओं और प्रत्युत्तरों की एक शृङ्खला सी होती है। हमें उनकी मूर्खता का पता तभी लगता है जब किसी दुर्योग से वह शृङ्खला टूट जाती है ।"
वर्ष की विशेष ऋतुओं में मादा पक्षी को मातृत्व की भावना आ दवाती है । वह बैठने की प्रबल लालसा को रोक नहीं सकती। यदि घोंसले में कोई भी अंडा नहीं होता तो वह किवाड़ के लट्ट पर ही बैठने लगती है। बच्चों को छोड़ कर मारा लाने के लिए कई कई मील जाना पड़ता है, और वह ठीक वहीं वापिस आ जाती है जहाँ से गई थी। इसमें उससे कभी भूल नहीं होती। परन्तु तनिक घोंसले को उठाकर एक गज़ इधर या एक गज़ उधर रख दीजिए। अब मादा उसे नहीं ढूँढ़ सकेगी। वह उड़कर परे चली जाती है, फिर उसी स्थान पर लौट आती है, और फिर उड़ जाती है। इस प्रकार उसे कई बार घण्टों लग जाते हैं । तब कहीं वह अपनी
की बेड़ियों से छुटकारा पाकर घोंसले को ढूँढ़ पाती है। वह बार बार भूल से ग़लत जगह पर चली जाती है और जब वहाँ घोंसला नहीं मिलता तब फिर दूसरे स्थान पर खोजने का यत्न करती है ।
डाक्टर बताते हैं कि " बहुत-से पक्षी घर को खूब सँभालते हैं और घोंसले को बहुत साफ़सुथरा रखते हैं । घोंसले में जो बीट आदि गिरती है। उसे उठाकर वे दूर फेंक आते हैं। इससे घोंसले का निशान बतानेवाली कोई चीज़ वहाँ पड़ी नहीं रहती और घोंसला छिपा भी रहता है। इससे कई लोग विश्वास करने लगे हैं कि इनकी सफाई उच्च कोटि की बुद्धि का परिणाम है । परन्तु कैम्ब्रिजविश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के एक समूह ने २० साधारण पक्षियों के घोंसलों की निगरानी की। जो भी रोयाँ या बीट घोंसले में गिरती थी वे उसे चिमटों से उठा लेते थे। इससे घोंसले निरन्तर साफ़
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