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सरस्वती
[ भाग ३६
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पाश्चात्य सभ्यता पर यह लाञ्छन नहीं ? मनुष्य शत्रुनाशोऽभ्युपगन्तव्यः' इन शब्दों द्वारा युद्धों की मनुष्य के खून का प्यासा हो, यह कैसा बीभत्स उपादेयता का दृढ़ समर्थन किया है। विचार है ? इटली अपने सैनिक बल के उन्माद में इन सब अवस्थाओं में लेखक के ये निराशामय निरीह बालकों, स्त्रियों, धात्रियों और चिकित्सकों वचन किसी सहृदय के हृदय को व्यथित न करेंगे की एक क्षण में हत्या कर देता है। यह भी कोई कि संसार में युद्धों की कदापि समाप्ति न होगी तथा सभ्यता है ! प्राचीन समय के युद्धों में ऐसी तबाही मनुष्यस्थित पशु अपनी पाशविक नग्न लीलाओं, की कल्पना भी नहीं हो सकती। युद्धों के भी नियम कुत्सित चेष्टाओं एवं घृणित ताण्डवों का कभी थे, बन्धन थे जिनसे सीमित होकर पदाति पदाति अन्त न करेगा। विश्व में शान्ति की कल्पना शतासे, अश्वारोही अश्वारोही से तथा रथारोही रथारोही ब्दियों तक केवल कल्पना-मात्र रहेगी-आदर्शसे ही संग्राम कर सकते थे। इन युद्धों में सर्व- वादियों का जगद्वन्धुत्व का आदर्श केवल एक संहार का जघन्य पाप - कुत्सित कृत्य तथा हृदय- आदर्शमात्र ही रहेगा। संसार के सब राष्ट्र, स्वार्थ हीन पाशविक व्यवहार कदापि दृष्टिगोचर नहीं के एकमात्र उद्देश से अपने देश, भूमि, व्यवसाय होता था। .
को उन्नत करने में अग्रसर होंगे और इस अन्धी __इस छोटे लेख में प्राचीन आर्य-युद्ध-मर्यादाओं दौड़ में मनुष्यत्व के एकत्व तथा भ्रातृत्व का विचार की विवेचना नहीं की जा सकती। इसका तो विचार- एक स्वप्रमात्र ही रहेगा। अनेक क्षुब्ध आत्मायें णीय विषय केवल युद्धों की अनिवार्यता है। हमने अपनी अन्तर्वेदनाओं के मूक आवेग में अन्तस्तल भिन्न भिन्न विचारशैलियों के आधार पर यह से एक साथ प्रार्थनायें करेंगी और भविष्य में होनेनिदर्शन करने का प्रयत्न किया है कि किस तरह वाले संहारकारी महायुद्ध का अवसान चाहेंगीयुद्धसंस्था की उपयोगिता तथा आवश्यकता पर परन्तु यह महायुद्ध रोकने से भी न रुकेगा। क्या
आज तक विश्वास किया गया है। न केवल अध- यह संभव है कि सैनिक बल से उन्मत्त संसार की शिक्षित व्यक्ति अपितु शिक्षित अग्रगण्य संसार के महाशक्तियाँ अपने अपने उन्माद में एक दूसरे पर विचारक भी युद्धों की अनिवार्यता को स्वीकार प्रहार किये बिना रह सकेंगी? और फिर इस महाकरते हैं। स्वयं भारतीय नीतिशास्त्रवेत्ता आचार्य प्रलय का जो भयानक परिणाम होगा उसे वर्षों चाणक्य ने युद्धों की अनुपयोगिता के एकदेशीय मत बाद आनेवाली मनुष्यसन्तति ही समझेगी। कौन का (जित्वाऽपि क्षीणदण्डकोष: पराजितो भवती. इस अवश्यम्भावी आते हुए महासंहार को रोक त्याचार्याः) निराकरण करके 'सुमहताऽपि व्ययेन सकता है ?
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