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सरस्वती
विकासवाद के सिद्धान्त के अनुसार युद्ध एक बिलकुल प्राकृतिक घटना है। डार्विन की दृष्टि में मनुष्य का मनुष्य को मार देना सर्वथा स्वाभाविक है । यह प्रकृति का नियम है कि निर्बल संसार से विनष्ट हो जायें। इसके अनुसार बलवान जातियों का निर्बल जातियों पर आक्रमण करना नितरां अनिवार्य है | इस क़ानून से सृष्टि के किसी भाग का संहार हो जाना सर्वथा उपेक्षणीय है और संग्रामों की सत्ता संसार के तारतम्य को व्यवस्थित रखने के लिए आवश्यक है । यदि युद्ध न हो तो मनुष्यसृष्टि का स्वरूप अति भयानक तथा व्यवस्थाशून्य हो जाय ।
अर्थशास्त्री भी माल्थस की आबादी सम्बन्धी प्रसिद्ध कल्पना का समर्थन करते हुए युद्धों की अनिवार्यता पर विश्वास करते हैं। उनका कथन है कि संसार में खाद्य पदार्थों की उत्पत्ति परिमित होने के कारण भारी मनुष्य-संख्या को भूखों मरना पड़ेगा, अतः युद्धों द्वारा इस संख्या में कमी आ जाने से आबादी और उत्पत्ति के अनुपात का समतुलित रहना आवश्यक है । यदि युद्ध न होंगे तो महामारी और बीमारी के कारण जन-संहार होना निश्चित है । इसलिए युद्धों द्वारा ऐसा विनाश हो जाना मनुष्यजाति के अन्तिम कल्याण के लिए है। ये अर्थशास्त्री अन्तर्राष्ट्रीय संग्रामों का एक आर्थिक हेतु भी मानते हैं । वस्तुतः एक राष्ट्र आधुनिक युग में दूसरे देश पर केवल इसी लिए आक्रमण करता है कि वह अपने व्यवसाय के कच्चे माल को प्राप्त करने की भूमि प्राप्त कर सके तथा अपने तैयार किये हुए माल के लिए मार्केट निर्माण कर सके । केवल साम्राज्यवाद की लिप्सा जो कभी सिकन्दर, जूलियस सीजर और नेपोलियन में थी, आज कल के राष्ट्रों में प्रेरक हेतु नहीं । यदि योरपीय शक्तियाँ अपने अपने उपनिवेशों को अपने हाथ में रखना चाहती हैं और नये उपनिवेशों को विजय करना चाहती हैं तो उनका एक मात्र उद्देश अपनी आर्थिक अवस्था को उन्नत करना है । जब से व्यावसायिक क्रान्ति का प्रारम्भ
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हुआ है और अनल्पमान पर उत्पत्ति का प्रारम्भ हुआ है तब से उत्पन्न वस्तुओं के लिए मार्केट प्राप्त करने का सतत संघर्ष प्रत्येक शक्तिशाली राष्ट्र करता रहा है। इसी कारण आज सारे संसार में हाहाकार मचा हुआ है। इसी आर्थिक विषमता के परिणामस्वरूप युद्धों की बीभत्सता अपने नग्नरूप में प्रत्येक तत्त्ववेत्ता के सम्मुख नृत्य कर रही है । अर्थशास्त्रियों का तो निश्चित मत है कि संसार में संग्रामों का मूलोच्छेद न हो सकता है, न होना ही उचित है ।
ऐतिहासिक सम्प्रदाय के विचारक भी युद्ध की अनिवार्यता का पोषण करते हैं। उनके मतानुसार जहाँ कहीं जन-समाज है, वहीं संघर्ष का उत्पन्न होना प्राकृतिक है । प्रागैतिहासिक काल में वन्य जातियाँ परस्पर लड़ती रहती थीं । कुटुम्ब प्रथा के विकसित होने के बाद भी स्त्रियों के लिए पारस्परिक कलह बने रहते थे। नगर एवं राज्यों की स्थापना के अनन्तर भी युद्ध क़ायम ही रहे, जिनका साक्षी ग्रीस, रोम और भारत के मध्यकालीन संग्राम हैं। राष्ट्र के साम्राज्य संस्था में परिणत होने के बाद साम्राज्यलिप्सा के कारण ये युद्ध जारी रहे और उन्नीसवीं शताब्दी से जाति-राष्ट्रों में व्यावसायिक विस्तार के कारण ये अन्तर्देशीय कलह बड़े परिमाण में दृष्टिगोचर होने लगे । १९९४-१८ का यारपीय महासमर इस ऐतिहासिक श्रृंखलता का एक अन्तिम नमूना था । परन्तु इन युद्धों की समाप्ति यहीं पर नहीं हो जाती है। ऐसे अनेक युद्ध भविष्य में होंगे और इतिहास अनेक बार अपने को दोहरायेगा | यद्यपि राष्ट्र संघ की स्थापना हो चुकी है, तथापि ऐतिहासिक दूर दृष्टि से युद्धों की समाप्ति की कल्पना करना अपने को धोखे में डालना है ।
सबसे विचित्र तो मनोविज्ञानियों का तर्क है। देश भक्ति के भाव से भरे राष्ट्रवादी लोग 'स्वराष्ट्र को ही अपना परम ध्येय समझते हैं। उसके लिए किसी भी साधन वा कार्य को वे अनुचित नहीं मानते । अपने देश की रक्षा अथवा उन्नति के लिए वे सब प्रकार
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