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संख्या ५]
युद्धों की अनिवार्यता
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के वैध-अवैध, नैतिक-अनैतिक मार्ग का आश्रय सप्रसिद्ध दार्शनिक हेगल तो 'शान्ति' से घृणा लेना आवश्यक ही नहीं उचित समझते हैं। ऐसे करता है। उसके विचारानुसार शान्ति से देश में देशभक्त मतवाले लोग धर्म, शिष्टाचार, सभ्यता, पतन और पाप बढ़ता है। किसी जाति को आलस्य नीति आदि किसी वस्तु के बन्धन को स्वीकार नहीं में गिर जाने से बचाने के लिए समय समय पर यद्धकरते। वे सब सम्भव उपायों से अपने देशहित का दुन्दुभि का तुमुल नाद करना न केवल उपयोगी, सम्पादन करना चाहते हैं । युद्ध की अनैतिकता तो अपितु आवश्यक है। नीश्टे, हेकल, ट्रीटस्के प्रभृति उनकी समझ में ही नहीं आ सकती। युद्ध से भी बढ़कर अन्य जर्मन विचारक भी इन्हीं सिद्धान्तों का पोषण किसी जघन्य पाप को वे करने के लिए उद्यत रहते हैं, करते हैं। उनके कथनानुसार जातीय जागृति के लिए यदि उसके द्वारा उनके देश का कोई कार्य सिद्ध होता यद्ध अत्यन्त प्रभावशाली साधन हैं। मानवीय हो। सचमुच ऐसी संकीर्ण जातीयता और स्वराष्ट्र- उन्नति में यद्धों का होते रहना एक आवश्यक तत्त्व प्रियता की कल्पना ने ही युद्धों को संसार में बद्धमूल है। इनके द्वारा प्रसप्त आत्माओं में प्रबोध एवं कर दिया है।
कर्तव्यनिष्ठा के भाव उत्पन्न होते हैं। इन्हीं यद्धों से ऐसे राष्ट्रवादियों का तक भी कुछ समझने राष्ट्रीय आचार का उत्कर्ष होता है। जातीय अभिलायक है। उनका कथन है कि राष्ट्र-संस्था का जन्म मान के अतिरिक्त युद्धों-द्वारा एकता, संगठन, संघशक्ति वा ताक़त से हुआ है। उसकी स्थापना भी शक्ति का अद्भुत पाठ प्राप्त होता है। राष्ट्र के नवशक्ति पर है और उसका विस्तार भी शक्ति-द्वारा है। युवकों में देश-भक्ति की भावना भरने का युद्ध एक उसका नाश भी यदि होगा तो किसी ताक़त की सुवर्णीय अवसर होता है। ऐसे ही अवसरों में टक्कर से ही होगा। संक्षेपतः शक्ति ही राष्ट्र का एक- जातियों के भविष्य का निर्माण होता है। प्रिंस मात्र तत्त्व है--शक्ति ही इसका अाधार तथा प्राण बिस्मार्क ने ऐसे अवसर का लाभ उठाकर जर्मनहै। इस तरह जिस संस्था का शक्ति ही सर्वस्व हो राष्ट्र का निर्माण किया। हिटलर इन्हीं भावनाओं वह कब युद्ध से पराङ्मुख हो सकती है । युद्ध तो को आज पुनः जागृत कर जमनी के शक्ति-भांडार शक्ति-परिचय एवं शक्ति-सञ्चय का एक अनुपम का संग्रह कर रहा है। अवसर है। एक 'यहच्छा-अपावृत्त स्वर्ग्य-द्वार' है। वस्तुतः योरप के सामरिक वातावरण का हेतु कौन स्वाभिमानी देश ऐसे दुर्लभ मौक़ को अपने जर्मन विचारकों के उपर्युक्त लेख और विचार हैं। हाथ से जाने देगा ? कौन उन्नतिशाली राष्ट्र ऐसे आज पाश्चात्य देशों में परस्पर स्पर्धा है- ईर्ष्या हैसुवर्णावसर की उपेक्षा करेगा ?
वैमनस्य है केवल अपने सैनिक बल-संगठन करने इन राष्ट्रवादियों में जर्मन विचारकों का स्थान के लिए। प्रत्येक शक्ति अपने जलयानों और वायउच्चतम है। वे अपने देश को मातृभूमि ही नहीं, यानों की संख्या बढ़ाने में तत्पर है। जितना व्यय पितृभूमि भी मानते हैं। उनके मतानुसार जर्मनी का अस्त्र-शस्त्र तथा अन्य युद्ध-सामग्री के संग्रह में किया एक एक बच्चा देश के लिए है-और उसके जन्म, जा रहा है, उतना जातीय शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर पालन, शिक्षण का एकतम उद्देश स्वदेश की सम्मान- नहीं किया जाता। कितनी दुःखप्रद स्थिति है कि रक्षा तथा अभ्युदय है। इन विचारकों का मूलमन्त्र संसार के धन का अधिक भाग विनाशक गैसयन्त्रों, है-माइ कंट्री, राइट आर रांग अर्थात् मेरा देश, विध्वंसक हवाई जहाजों और प्रलयकारी संहारक भला या बुरा उनके उपदेशों का सार यही है-एक- तत्त्वों के एकत्रीकरण में ही खर्च किया जा रहा है ? मात्र संक्षेप यही है।
क्या यह सब मनुष्य-जाति का कलङ्क नहीं ? क्या
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