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संख्या ४]
व्यर्थ प्रयास
वंशी हालदार के दल के जितने भी श्रादमी थे, उन राय की अट्टालिका में गया। उस समय रात के चार सभी पर थोड़ी-बहुत मार पड़ी। बाद को वे सब बाँध लिये बजे थे। वनलता सारी रात सो नहीं सकी। मेरे आने गये। घर से थोड़ी दूर पर चार बड़ी बड़ी लारियाँ खड़ी का समाचार पाते ही वह दौड़ी आई और मेरे गले से लिपटथीं, उन्हीं पर उन सब डाकुओं को बैठाकर पुलिस उन्हें कर कहने लगी-चाचा जी, तुम्हारे ऊपर किसी प्रकार लेकर चली गई।
का अत्याचार तो नहीं किया गया ? .. मैनेजर ने मुझसे कहा-बिटिया रानी अापको देखने मैंने कहा-वह कोई ऐसी बात नहीं थी, परन्तु जराके लिए बहुत ही उत्कण्ठित हैं, उन्होंने अपनी गाड़ी सा ही और विलम्ब होने पर वे लोग तुम्हें पकड़ ले जाते, भेजी है।
और विवाह कर देते। मैंने कहा-चलिए, अब यहाँ रहने की क्या श्राव- वनलता ने उपेक्षा के साथ मस्तक हिलाकर कहाश्यकता है।
मेरा विवाह तुम करोगे । वे लोग कौन होते हैं ? मोटर के पीछे अपना सारा सामान बाँधकर मैं मिस्टर
গ্রাঙ্গুলাচ্ছি-লিজাজ
लेखिका, श्रीमती रामकुमारी चौहान अधकुचले अरमानों की है यह धूमिल-सी रेखा ॥ पली निराशा की निशीथ में इसने प्रात न देखा। उस निष्ठुर के वन-प्रहारों से निर्मित इसका आकार ।। यह इच्छाओं की अपूर्ति है यही मूर्ति करुणा साकार ।।
उषाकाल में सन्ध्यावेला पतझड़ में है यही वसंत ।। आकांक्षाओं की असफलता विषम व्यथा का छोर अनन्त ।। यह कंपित-से नील व्योम के है दृगतारों की जलधार ।। योग-वियोग आदि की जिसमें होती है प्रतिपल बौछार ॥
ऐ मेघो, तुम बहा न देना देखो मेरी एक समाधि । इसमें अभी सुला पाई हूँ जग की निर्मम व्याधि-उपाधि ॥ शशि-किरणो, तुम मधुर स्नेह ले आ जाना इस ओर समीप ।। कान्तिदान से प्रज्वल रखना मम समाधि का सुप्त-प्रदीप ।।
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