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संख्या ४]
भूषण का महत्त्व
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भले ही लग जाय; पर वर्तमान राजनीति और हिन्दू. गया सत्रहवीं शताब्दी के अन्य साहित्यिक प्रयत्नों मुसलिम-सम्बन्ध के विषय में तो उनका पूर्ण अज्ञान की भाँति वह भी एक प्रयत्न है।" सिद्ध हो रहा है । यदि ज़रा-सा विचारपूर्वक देखा विनोदविहारी जी, यह आपकी बड़ी भारी जाय, तो आज भी, औरंगजेब के समय की भाँति धृष्टता है कि जो आप महाकवि भूषण की कविता ही, हिन्दू-मुसलमान दोनों राजनैतिक शक्ति के लिए, को केवल “भटैती” और धन के लालच से लिखी हुई किसी न किसी रूप में, लड़ रहे हैं। अन्तर केवल कविता बतला रहे हैं। भूषण कवि किस चरित्र का इतना ही है कि उस समय स्वतन्त्र रूप से लड़ रहे थे, व्यक्ति था-जान पड़ता है, इसका आपको बिलकुल
और आज पराधीनता में लड़ रहे हैं। आप कहते परिचय नहीं है । दुःख की बात है कि हमारे प्राचीन हैं कि दोनों अपनी पराधीनता का अनुभव कर रहे कवियों के चरित्र के विषय में अभी तक पूरी पूरी. हैं; और मिलकर रहने में कल्याण मानते हैं। यह खोज नहीं हो सकी है, फिर भी भूषण कवि की. भी आपका लिखना बिलकुल ग़लत है। जिस दिन जीवन-घटनाओं के विषय में जितनी कुछ जानकारी दोनों जातियाँ पराधीनता का अनुभव करेंगी, उसी अब तक प्राप्त हो सकी है, उसी को यदि आप एक दिन दोनों स्वाधीन हो जायँगी; और आये दिन बार पढ़ जाते, तो आप इतने श्रेष्ठ महाकवि को भाट "मस्जिद के सामने बाजा" तथा अन्य ऐसे ही और धन का लालची बतलाने का दुस्साहस न खुराफात जो मुसलमानों की तरफ से उठाये जाते हैं; करते । आपको मालूम होना चाहिए किवे भी बन्द हो जायेंगे।
भूषण कवि चार भाई थे। चिन्तामणि, भूषण, आप लिखते हैं कि मेल का प्रयत्न जारी है। मतिराम और जटाशंकर उपनाम नीलकंठ। ये कान्यसो हमारे देखने में तो कोई भी प्रयत्न मेल का इस कुब्ज ब्राह्मण थे, जो प्रायः प्राचीन काल से अपनी समय दिखाई नहीं देता। सम्भव है कि भूषण कवि निःस्पृहता के लिए प्रसिद्ध हैं । बड़े भाई चिन्तामणि की कविता को हिन्दी-संसार से मिटा देने के प्रयत्न स्वयं औरंगजेब बादशाह के दरबारी कवि थे। भूषणः को ही आप हिन्दू-मुस्लिम-ऐक्य का इस समय एक- से छोटे दोनों भाई-महाकवि मतिराम और मात्र प्रयत्न समझते हों. पर वास्तव में यह श्रापका नीलकंठ ये भी राजदरबार में ही रहते थे। उनके बडा भारी भ्रम है। इससे राजनैतिक अधिकारों के घर में कोई खाने-पीने की कमी नहीं थी। जैसा प्रायः भूखे मुसलमान नेतागण प्रसन्न तो नहीं हो सकेंगे- गवाँर स्त्रियों का स्वभाव होता है, भूषण की भौजाई, हाँ, हिन्दू-जाति और हिन्दी-संसार की श्रद्धा उन चिन्तामणि की धर्मपत्नी ने एक दिन एक छोटीमहात्मा पर से उठ जायगी, जिनकी वकालत आप सी बात पर भूषण को ताना दिया, जिसको कर रहे हैं।
वे न सह सके; और तड़ाक से घर से निकल विनोदविहारी जी को इस बात का बड़ा आश्चर्य पड़े, जिससे भूषण जी का तेजस्वी स्वभाव ही है कि शिवाबावनी के समान साम्प्रदायिकता को प्रकट होता है। एक प्राचीन जीवन-चरित भड़कानेवाली, वीर रस से शून्य, अराष्ट्रीय और में लिखा हुआ है कि भूषण जी, भौजाई के कामुकता-पूर्ण कविता का मोह हम लोगों में क्यों वाक्यवाण से विद्ध होकर, पहले कुमायूँ-नरेश के है ! आपकी राय है
यहाँ पहुँचे, और "उलदत मद अनुमद ज्यों जलधि ___“शिवाबावनी में वह वीर रस नहीं है जिसका जल" इत्यादि उनका कवित्त कुमायूँ -नरेश को इतना
आस्वादन कर हम वीर बाँकुरे बनना चाहते हैं। पसन्द आया कि उन्होंने एक लाख मुद्रा भूषण को वह तो भटैती मात्र है। धन की इच्छा से लिखा समर्पित किया; और कहा-“लीजिए, ऐसा दाता
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