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सरस्वती
[भाग ३६
तुम्हें न मिलेगा।" यह अभिमान भरी बात सुनकर असल में बादशाह का अभिप्राय यह था कि भूषण ने कहा-"ऐसे दाता तो बहुत होंगे, पर मुझ- इस बहाने अपने परोक्ष-निन्दक का पता लगा लूँगा। सा त्यागी ब्राह्मण न मिलेगा।" और यह कहकर उस समय सब कवि लोग चुप्पी साधकर रह गये। उस निःस्पृह ब्राह्मण ने उतनी बड़ी धनराशि को वहीं "दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा” कहलानेवाले उस लात से ठुकरा दिया !
मुग़ल बादशाह की धाक कुछ कम नहीं थी। फिर ऐसे निःस्पृह कवि को विनोदविहारी के समान भी यह केवल वीर कवि भूषण का ही साहस था, छोटे लेखक ही धन का लालची और भटैती कविता जो उन्होंने उस दिल्लीपति की धाक की परवा न करनेवाला कह सकते हैं ! कोई समझदार लेखक तो करते हुए कहाकह नहीं सकता।
___“जहाँपनाह, खुशामद खुदा को भी प्यारी है। फिर देखिए। भूषण कवि पन्ना के महाराज इसी से सब लोग आपके दोष छिपाकर केवल गुण वीरशिरोमणि हिन्दू-पूज्य छत्रसाल के दरबार में भी ही बखानते हैं। लेकिन जब आप सत्यवादिता की उपस्थित हुए थे। वहाँ महाराज छत्रसाल जब भूषण ही परीक्षा करना चाहते हैं, तो सुनिए-मैं हाजिर को बिदा करने लगे, तब महाराज ने स्वयं भूपण की हूँ।" ऐसा कहकर भूषण कवि ने कड़ककर अपने पालकी को कन्धा लगाया; और कहा कि हम आपके ये दो कवित्त बादशाह को सुनाये-- सेवक हैं। इस घटना से जहाँ वीरशिरोमणि छत्र- १--किबले की ठौर बाप बादसाह साहजहाँ। साल की उदारता प्रकट होती है, वहाँ यह भी सिद्ध २-हाथ तसबीह लिये प्रात उठे बन्दगी को। होता है कि महाकवि भूषण कोई मामूली धन के
इत्यादि लालची भाट कवि नहीं थे, बल्कि उनमें चरित्र का इन्हीं कवित्तों को लक्ष्य करके विनोदविहारी जी वह ऊंचा बल था कि जिसके कारण ऐसे ऐसे सूरमा, भूषण कवि को कायर बनाते हुए लिख रहे हैंउस समय के बड़े बड़े हिन्दू-सम्राट भी उनकी प्रतिष्ठा "औरंगजेब को कोसा है कि तूने बाप को कैद करते थे।
किया, भाई को मारा, तुझे नरक होगा। यह हम ऊपर कह चुके हैं कि भूषण के बड़े भाई असमर्थों और अपाहिजों की वाणी है।" चिन्तामणि औरंगजेब बादशाह के राजकवि थे; धन्य है विनोद विहारी जी, आपकी जानकारी
और इसी सिलसिले से भूषण जो औरंगजेब के दर- भूषण कवि के विषय में बहुत ही बढ़ी-चढ़ी है ! बार में भी उपस्थित हुए थे। औरंगज़ब के दरबारी आपको इतना तक नहीं मालूम है कि ये कवित्त भषण कवि बादशाह की उचित-अनुचित प्रशंसा करके ने किस मौके पर कहे हैं। औरंगजेब स्वयं कवियों को उसकी खूब खुशामद किया करते और ग्खूब धन प्रचारण कर रहा है कि तुममें से यदि किसी में कमाया करते थे। एक दिन औरंगज़ेब, जब अपने हिम्मत हो, तो हमारी निन्दा के कवित्त पढ़ो। दरबार में अपने रत्नजटित मयूर-सिंहासन पर बैठा उसकी इस प्रचारणा पर वीर कवि भूषण, भरे दरबार हुआ था, अपने दरबारी कवियों को सम्बोधन करके में, बादशाह के सामने, ये उसकी निन्दा के कवित्त बोला
पढ़ सुनाता है। इसी में उस कवि की निर्भयता, ____ "कवीश्वरो, तुम लोग मेरी तारीफ़ ही तारीफ़ निःस्पृहता और फक्कड़पन के भाव मौजूद हैं, जिसको किया करते हो ! क्या मुझमें कोई ऐब नहीं है ? आप "अपाहिज" और "असमर्थ" बतला रहे हैं ! मेरे ऐब को भी बखानो, तब मालूम हो कि तुम इन कवित्तों के अन्त में यह लाइन आती हैसत्यवादी हो।"
"भूखन भनत छरछन्द मतिमन्द महाँ सौ सौ चूहे
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