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संख्या ४]
व्यर्थ प्रयास
वंशी हालदार ने कहा-आज यह न लिख सकेगा, मकान के ऊपर नाचता रहा । शब्द सुनकर समझ पाया इसका हाथ ठीक नहीं है। इसको कुछ खिलाअो-पिलायो। कि ऐरोप्लेन बहुत नीचे से जा रहा है। उपवास कराने से काम न चलेगा। कल यदि इसने न मुझे ऐसा लगा कि ऐरोप्लेन से कोई आदमी ध्यानलिखा तो कोई और उपाय किया जायगा। लिखने को पूर्वक उस मकान को देख रहा है। मैं बाहर खड़ा था, तो इसका बाप लिखेगा, इसे रात को अकेले मत रक्खो। सम्भवतः मुझे भी देखा होगा।
उसने मोटे-ताज़े आदमी से कहा-तुम इसके कमरे वंशो हालदार बहुत जानकारी रखता था, परन्तु सारी में सोना।
बातें नहीं जानता था। दक्षिणपाड़ा से तीस कोस की मुझे ज़रा-सा दूध तथा कुछ और चीज़ खिलाकर दूरी पर ऐरोप्लेन रखने का एक स्थान था, जो ऐरोड्रोम सोने को कहा। पहलवान भी एक दूसरी चारपाई लाकर कहलाता था। वहाँ कई ऐरोप्लेन थे। वनलता एक मेम मेरे ही कमरे में लेट गया।
से अँगरेज़ी और एक पण्डित से संस्कृत पढ़ा करती थी। बड़ी देर तक मेरे शरीर में ज़रा-सा कम्पन का भाव अँगरेज़ी में वह बहुत अच्छी तरह बातचीत कर सकती था। उसके बाद दिमाग़ ठिकाने पर आया। मैंने समझ थी। ऐरोप्लेन में बैठने का उसे नशा था, मुझे मी वह लिया कि ये लोग अब मुझे अकेले न रहने देंगे। चिट्ठी कई बार ले गई थी। ऐरोड्रोम से मिस्टर राय के घर को यदि मैंने पहले ही न फेंक दी होती तो अब अवसर न टेलीफोन लगा था, कभी कभी टेलीफोन से बातचीत हुआ मिलता। क्या किसी ने उस चिट्ठी को उठाया होगा? करती थी। ऐरोड्रोम के सभी लोग वनलता को तथा यदि उठाया है तो रुपये लेकर चिट्ठी कहीं फेंक तो नहीं मुझे विशेष रूप से पहचानते थे। दी या वे सारी चीजें ज्यों की त्यों बँधी पड़ी है, कोई ऐरोप्लेन को देखते ही मैंने पहचान लिया। कदाउन्हें देख ही नहीं पाया ? आशा और अाशङ्का से मेरा चित् वनलता स्वयं उसमें बैठी थी। कोई भी रहा हो, इस चित्त चञ्चल हो उठा। रात्रि प्रायः समाप्त होते होते मकान को वह पहचान गया है, इसमें अब कोई सन्देह निद्रा आ गई । सो जाने पर तरह तरह के स्वप्न देखने नहीं रहा । अब मेरे छुटकारे में अधिक विलम्ब नहीं है । लगा।
दिन ढलते ढलते आकाश पर बादल घिर आये। निद्रा भंग होने पर देखा तो दिन बहुत चढ़ आया रह रहकर बिजली भी चमकने लगी । मेघों के गर्जने से सारी था। कमरे में और कोई नहीं था। मस्तक में थोड़ी दिशायें परिपूर्ण हो गई । रह रह कर वर्षा भी होने लगी। थोडी पीडा अवश्य थी. उसके अतिरिक्त शरीर में और साँझ होने के बाद वंशी हालदार अपना दल-बल किसी प्रकार का क्लेश नहीं था । प्रति दिन की तरह आज लेकर फिर आया। उसने कहा-कहो, अब क्या कहते सवेरे टहलने नहीं गया। कमरे के बाहर थोड़ी देर तक हो। इस बार चिट्ठी लिखोगे या नहीं ? खड़ा रहा, वंशी हालदार या और किसी को देख नहीं अब मैंने उत्तर दिया-अब मुझे आपत्ति नहीं है। पाया।
वनलता मेरी लड़की तो है नहीं। मुझे क्या पड़ी है कि मैं दोपहर को भोजन करके कमरे में बैठा था, इतने में उसके लिए इतनी यन्त्रणा सहन करूँ ? उसके भाग्य में ऐरोप्लेन का शब्द सुनकर बाहर निकल आया। देखा, जो है वही होगा। एक ऐरोप्लेन बहुत नीचा होकर उस मकान के ऊपर से वंशी ने हँसकर कहा-अब रास्ते पर आ गये हो । होकर चला जा रहा है । वंशी हालदार तथा और भी कई यदि आज भी न सहमत होते तो एक और तरह का मज़ा
आदमी घर से निकल पड़े। मुझे देखते ही उन लोगों ने चखने को मिलता! कहा-तुम यहाँ क्यों आये ? भीतर जात्रो।
मैंने कहा-आज रात भर और ठहर जात्रो, कल सवेरे मैं भीतर चला गया। ऐरोप्लेन दो-तीन बार उस लिख दूंगा।
फा. १०
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