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सरस्वती
' [भाग ३६
का काग़ज़ और लिफ़ाफ़ा था । उसने मुझसे कहा कि यदि लोग पर लिये थे, वे एक एक कुर्सी खींचकर मेरे पायतुम दुर्दशा से बचना चाहते हो तो भले आदमी की तरह मैं ताने के पास बैठ गये और उन्हीं परों से पैरों के नीचे के जो कुछ कहूँ वह लिख दो। मैंने जिस वर की तुमसे चर्चा भाग को सहलाने लगे। की थी उसे अपने साथ ले आया हूँ। देखने में सुन्दर यह क्या दण्ड था या कौतुक ? जरा-सी सुरसुराहट है, कुलीन है। और चाहिए ही क्या ?
होते ही मैंने पैर खींच लेने का प्रयत्न किया, परन्तु वह जिन दो श्रादमियों ने वंशी हालदार के साथ रेल- हिल तक न सका। क्रमशः घबराहट मालूम होने लगी. गाड़ी में प्रवेश किया था उन्हीं में से एक को उसने दिख- अन्त में वही घबराहट यन्त्रणा के रूप में परिणत हो गई, लाया । युवा पुरुष था, देखने में भी बुरा नहीं था, सुरसुराहट बराबर होती रही, उसका कोई विराम या अवलेकिन उसका चेहरा भले आदमी का-सा नहीं था। सान नहीं था। सारे शरीर में यन्त्रणा होने लगी। मैंने कहा-मैं चिट्ठी नहीं लिलूँगा।
खोपड़ी के नीचे मानो हज़ारों कीड़े काटने लगे। देखते कमरे में एक छोटा-सा टेबिल था। वंशी ने उसी ही देखते असह्य यन्त्रणा होने लगी। यहाँ तक कि मैं पर कलम, दावात, काग़ज़ आदि रख दिया और कहा -- एकाएक चिल्ला पड़ा। बाँधो इसको ।
वंशी हालदार ने कहा--अब लिखोगे ? मोटे-ताज़े आदमी ने मुझे पकड़कर चारपाई पर दाँतों से दाँत दबाकर मैं चुप रह गया। सुरसुराहट पटक दिया। मैंने शक्ति-भर हाथ-पैर चलाये, परन्तु बराबर होती रही। मेरे शरीर और मस्तिष्क के भीतर उसके सामने मैं बिलकुल बच्चा-सा था। तीनों श्राद- मानो असंख्य झींगुर बोलने लगे, सारा शरीर पसीने. मियों ने मझे चारपाई पर चित करके इस तरह बाँधा दिया पसीने हो गया। कि हिलने-डोलने के लायक न रह गया। खास कर दोनों जो लोग परों से मेरे पैरों को सहला रहे थे वे अब पैर तो ज़रा भी हिल नहीं सकते थे।
बीच बीच में बन्द भी कर देने लगे। वे हाथ में पर लिये वंशी हालदार ने पाकेट से न जाने क्या निकाला। चुपचाप बैठे रहते, किन्तु मेरी यन्त्रणा ज़रा भी न शान्त मैंने सोचा कि मुझे यन्त्रणा देने के लिए काई यन्त्र होती। जान पड़ता कि इस समय भी वही सुरसुराहट हो निकाल रहा होगा। देखा तो काग़ज़ में लपेटे हुए दो रही है । यन्त्रणा में जरा-सी कमी होते ही वे लोग फिर बड़े बड़े पर थे, और कुछ नहीं था। वे दोनों ही पर सहलाना प्रारम्भ कर देते। मुझे दिखाकर वंशी ने कहा-तुम समझते हो कि हम कैसा भयङ्कर दण्ड था, कैसी असीम यन्त्रणा थी ! लोग मार-पीटेंगे, कष्ट देंगे? इसके लिए तुम मत डरो। मैं अंट-संट बकने लगा, बाद को मुझमें चेतना न रह गई। तुम एक सज्जन पुरुष हो । तुम्हें भला हम लोग कभी कष्ट मैं मूञ्छित हो गया। दे सकते हैं ? केवल तुम्हारी ज़रा-सी चरण-सेवा भर की ज्ञान होने पर देखा तो तीनों ही आदमी खड़े थे, वंशी जायगी। राजकुमारी फूल की चोट से मूञ्छित हो जाती हालदार नृशंस के समान ज़रा ज़रा हँस रहा था। उसने थी, जानते हो ? देखना तुम कहीं परों की चोट से न कहा-कहो, क्या हाल है ? अब तो चिट्ठी लिख दोगे न ? मूच्छित हो जात्रो।
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। वंशी ने कहा-इसे ____ मैं यह कुछ समझ न सका। क्या परों में भी यन्त्रणा खोल दो। देने की कोई शक्ति होती है ? वह मोटा-ताज़ा आदमी बन्धन से मुक्त करने के बाद मोटे-ताज़े आदमी ने मेरे मेरे पास ही एक कुर्सी पर बैठा था। दूसरे दोनो श्राद- दोनों हाथों को खींचते हुए मुझे खड़ा किया। उस समय मियों को वंशी हालदार ने एक एक पर दे दिया। वह मेरे हाथ-पैर तथा शरीर के अन्यान्य समस्त अङ्ग काँपने स्वयं एक कुर्सी खींच कर मेरी बग़ल में बैठ गया। जो लगे। मैं चारपाई पर गिर पड़ा।
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