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हैं। यही उनकी खूबी है और अपनी इस खूबी के बल पर वे सदैव लोकप्रिय बने रहेंगे। पर मौलिकता का दम्भ उन्हें साहित्य की इस सच्ची सेवा से वञ्चित किये हुए है । दूसरों की चीजों को अपनी करके जनता के सामने उपस्थित करने और इस प्रकार वाहवाही लूटने की धुन में वे उनमें जो परिवर्तन और परिवर्धन कर देते हैं उससे उनका सारा सौन्दर्य नष्ट हो जाता है और जिस लेखक का कृति - महल ढहा कर उसी ज़मीन पर, उसी की नींव पर, उसी मसाले से वे अपना महल खड़ा करते हैं, उसके उद्देश, भाव और संदेश की हत्या हो जाती है ।
सरस्वती
मैं इस 'लेख में साबित करूँगा कि प्रेमचन्द जी ने मेरे उपन्यास --'उलझन के आधार पर किस तरह अपनी इस कहानी -- जीवन का शाप की रचना की और फिर अपनी मौलिकता की धाक बनाये रखने के उद्देश से उन्होंने अपनी ओर से भी कुछ जोड़कर किस प्रकार मेरे उपन्यास के सुन्दर उद्देश को अपनी कहानी में सुन्दर बना डाला ।
'उलझन' समस्या - मूलक एक दुःखान्त उपन्यास है । उसमें विवाहितों की समस्या पर मैंने वर्तमान समाज से जीवित उदाहरण लेकर कुछ विचार सामग्री उपस्थित की है। पति-पत्नी में परस्पर आकर्षण और प्रेम कैसे बना रह सकता है, यह बताने का मैंने उसमें प्रयत्न किया है । पाठक उपन्यास पढ़ने पर जिस नतीजे पर पहुँचेंगे वह यह है कि विवाहित स्त्री-पुरुप एक-दूसरे को अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न वल प्रयोग या क्रोध-प्रदर्शन के द्वारा न करके उदारता, सहिष्णुता, क्षमा, प्रेम और सहयोग के द्वारा करें एक-दूसरे की त्रुटियों और भूलों के लिए जहाँ तक क्षमा कर सकते हों, करें ।
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'जीवन का शाप' भी समस्यामूलक एक दुःखान्त कहानी है । उसमें भी विवाहितों की समस्या पर प्रेमचन्द जी ने वर्तमान समाज से जीवित उदाहरण लेकर कुछ विचार - सामग्री उपस्थित की है। पतिपत्नी में परस्पर प्रेम और आकर्षण कैसे बना रह
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[ भाग ३६
क्षमा,
सकता है, यह उन्होंने भी बताने का प्रयत्न किया है । परन्तु मैं पहले ही कह चुका हूँ कि उनमें प्रेम नहीं, घृणा के प्रचार की प्रवृत्ति है । इसलिए उन्होंने अपने स्वभाववश पति-पत्नी को एक दूसरे के अनुकूल बनाने के प्रयत्न में उदारता, सहिष्णुता, प्रेम और सहयोग की ओर पाठकों को न ले जाकर उन्हें छल और कपट की ओर ले जाने का प्रयत्न किया है। कुमार्ग पर जानेवाले पतियों की पत्नियों को उन्होंने उपदेश दिलाया है कि वे भी छिपकर कुमार्ग की ओर अग्रसर हों और 'कुढ़ना छोड़कर विलास का आनन्द लूटें ।' यह अन्तिम वाक्य उन्हीं का है जो उन्होंने अत्यन्त शान्त भाव से एक भद्र महिला से कहलाया है। यह बात इस भद्र महिला ने एक सम्पादक से कही है और उसे इस शुभ सन्देश को एक दूसरी स्त्री के पास पहुँचाने का आदेश दिया है । सम्पादक ने इसका खंडन नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि विवाहितों की समस्या प्रेमचन्द जी इसी प्रकार सुलझाना चाहते हैं । उनकी कहानी में सिर्फ यही बात ऐसी है जो 'उलझन' में नहीं है। शेप सारी बातें 'उलझन ' की हैं। पर पाठक देखें कि अपनी तरफ़ से यह नई बात जोड़कर उन्होंने अर्थ का कैसा अनर्थ किया है और मजा यह है कि इतने पर भी वे आदर्शवादी लेखक कहलाना चाहते हैं ।
'उलभान' के पात्र उत्तर भारत के हैं। प्रेमचन्द्र जी हाल में बम्बई गये थे और वहाँ लगभग साल भर रहे थे । अपने साथ वे 'उलझन ' के इन पत्रों को भी बम्बई लेते गये और उनका नाम बदल कर और पारसियों की पोशाक पहना कर उन्हें पारसी बना डाला । शायद इस ख़याल से कि जब वे उन्हें साल भर बाद उत्तर भारत लेकर आयेंगे तब उन्हें कोई पहचान नहीं सकेगा । यहाँ मैं प्रेमचन्द जी के इन बहु-रूपियों को 'उलझन' में दिखाये गये उनके वास्तविक स्वरूप के साथ उपस्थित करता हूँ । पाठक स्वयं विचार करें कि ये वही हैं या नहीं ।
प्रेमचन्द जी की कहानी के एक पात्र हैं
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