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सरस्वती
[ भाग ३६
सबसे पहली कार्रवाई । इसका अर्थ यह है कि सरकार माँगों को स्वीकार करने के लिए उस पर दबाव डालना सम्प्रदायवाद के विष को तभी विनष्ट करेगी जब यहाँवाले चाहिए। इसके लिए असेम्बली और कौंसिलों में केवल उसके विनाश के लिए स्वतः अग्रसर होंगे, अन्यथा वह विरोध ही करने के लिए नहीं जाना चाहिए, बल्कि जहाँ उसे फलने-फूलने देगी। वास्तव में उक्त धारा के अनुसार सम्भव हो, मिनिस्टरी के पद भी ग्रहण करने चाहिए । देश के अन्दर साम्प्रदायिक समझौता कभी नहीं हो सकेगा इससे अपनी शक्ति संगठित रहेगी और सरकार की कड़ी और उसके अभाव में यहाँ कभी सच्ची राष्ट्रीयता भी न आलोचना भी की जा सकेगी । इनके सिवा वे लोग भी पनप सकेगी। यही नहीं, धीरे धीरे साम्प्रदायिकता का विष अपनी घात में हैं जो अब तक कौंसिलों और असेम्बली में व्यवसायियों और मज़दूरों में भी फैलने लग जायगा। मज़े उड़ाते रहे हैं और जो यह नहीं चाहते कि ऐसे लोग अभी तक यह उनमें उतना नहीं फैला है, मगर जब यह कौंसिलों और असेम्बली में जायँ जो राष्ट्रीय मांगों के लिए यहाँ जड़ पकड़ लेगा तब उनमें भी वह फैल जायगा । सरकार से लड़ते हैं। ऐसी हालत में कांग्रेस की क्या नीति कुछ स्वार्थियों के हथकंडों के कारण देश को इस विभी- होगी इस पर सभी की निगाह गड़ी हुई है। षिका का अनुभव करना पड़ रहा है।
इस समय कांग्रेस में तीन मख्य दल हैं। पहला दल जिस इंडिया-बिल का भारत ने दृढता से विरोध किया, साम्यवादियों का है। इनमें अधिकांश शुरू से ही इसके विरोधी अन्त में २ अगस्त को सम्राट ने उस पर अपनी थे कि कांग्रेसवाले असेम्बली में जायँ। इन लोगों को पूँजीपतियों स्वीकृति दे दी और संशोधित 'इंडिया-बिल' अब कानून बन और मजदूरों की लड़ाई की ही फ़िक रहती है, इसी लिए गया है। अब देश का शासन इसी के अनुसार होगा। पद ग्रहण करना या कौंसिलों में जाने श्रादि जैसी बातों के इसमें संदेह नहीं कि भारत-मंत्री के हाथों से कुछ विभागों ये लोग खिलाफ़ हैं । इस दल का पहले तो काफी प्रभाव का प्रबन्ध लेकर भारतवासियों के हाथों में दे दिया गया था, मगर जब से इसने कांग्रेस की नीति का खुल कर है, मगर इसके साथ साथ गवर्नरों और गवर्नर-जनरल का विरोध करना शुरू किया है तब से यह करीब करीब इतने विशेषाधिकार दे दिये गये हैं कि उनके कारण प्रजा कांग्रेस से अलग हो गया है और इसकी बातों का को जो अधिकार भी दिये गये हैं वे सब बेकार-सा हो गये कांग्रेस की नीति पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरा हैं। विशेषाधिकार-द्वारा जब वे चाहेंगे और जहाँ भी वे दल उन कांग्रेसवादियों का है जो सरकार से मिल कर चाहेंगे, मनमाना काम कर सकेंगे। नये शासन-विधान से किसी तरह का समझौता करने को तैयार नहीं है । इस सिवा इसके कि बैठे-बैठाये ग़रीब भारतवासियों पर कई दल की भी शक्ति बम्बई-कांग्रेस में क्षीण थी, इसी करोड़ रुपये साल अधिक व्यय का भार लद गया, राष्ट्रीयता लिए इसके विरोध करते हुए भी कौंसिल-प्रवेश का की दृष्टि से कोई विशेष लाभ होता नहीं दिखाई देता। प्रस्ताव पास हो गया। मगर उस समय जो लोग कौंसिल
परन्तु इस समय प्रश्न यह है कि किया क्या जाय। प्रवेश के पक्ष में थे उन्होंने यह साफ़ शब्दों में प्रकट कर ऐसा तो है नहीं कि यदि राष्ट्रीयता-वादी भारतीय नये विधान दिया था कि उनकी नीति भी असेम्बली में वही होगी जो को ठुकरा देंगे तो सरकार का काम ही न चलेगा। उसे देशबन्धु चितरंजन दास और त्यागमूर्ति पंडित मोतीलाल तो विधान को चालू करने के लिए पिछली बार की तरह नेहरू की स्थापित की हुई स्वराज्य-पार्टी की थी यानी वे इस बार भी काफी लोग मिल जायँगे । ऐसी परिस्थिति में कौंसिल-प्रवेश तो अवश्य करेंगे, मगर वह होगी सरकार देश का क्या कर्तव्य है ? लिबरल और नेशनलिस्ट लोगों के शासन का विरोध करने के लिए और वे कोई पद का कहना है कि अगले चुनाव में बहुसंख्या में कौंसिलों में इत्यादि न ग्रहण करेंगे । किन्तु उस नीति से सरकार पर पहुँचकर उन पर अपना कब्ज़ा कर लेना चाहिए और सिवा दो चार हार खाने के और कोई प्रभाव नहीं पड़ा। फिर सरकार के कामों में अड़चन डालकर भारत की यह देखकर नये पार्लियामेंटरी बोर्ड के सदस्यों ने यह
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