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सरस्वती
इकट्ठा सिनेमा देखने जाते और इकट्ठा काम करते । हरिकुमार अपने आपको मालिक न समझते थे और न प्राणनाथ अपने को नौकर । दोनों एकता के तार में बँधे हुए थे। हरिकुमार धनी-मानी मा-बाप के लड़के थे, कालेज से निकलते ही कलकत्ता चले गये । प्राणनाथ के माता-पिता निर्धन थे, इसलिए वे लाहौर के ही एक दंदानसाज़ से शिक्षा प्राप्त करने लगे। डाक्टर हरिकुमार जब कलकत्ते से वापस आये तब उन्हें प्राणनाथ की कुशलता पर ग्राश्चर्य हुआ। उन्होंने जो वस्तु धन से प्राप्त की थी, प्राणनाथ को वही ग़रीबी ने प्रदान कर दी थी । उसने मुख्य मुख्य अँगरेज़ी और अमेरिकन डाक्टरों की पुस्तकों का अध्ययन किया था, उनके एक एक शब्द को बार बार पढ़ा था और कंठस्थ कर लिया था । प्राणनाथ को ऐसे ऐसे देशी और विदेशी नुस्खे भी याद थे जो हरिकुमार के देवताओं को भी न ज्ञात होंगे। डाक्टर साहब ने इस बात के जान लिया था और उन्होंने प्राणनाथ को अपने यहाँ उपयुक्त वेतन पर सहकारी के रूप में रख लिया । उसे और क्या चाहिए था ?
डाक्टर हरिकुमार की ख्याति का एक रहस्य यह भी था ।
( २ )
सर्दी के दिन थे, सुबह का समय था, किन्तु डाक्टर हरिकुमार एक कमीज़ ही पहने कमरे में घूम रहे थे । उनके चेहरे से परेशानी टपक रही थी । उन्होंने उस लम्बे कमरे का अन्तिम चक्कर लगाया और सर्जरी में दाखिल हो गये। दो घंटों से वे एक पीड़िता की दाढ़ की किरचें निकालने का प्रयास कर रहे थे, पर उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो रही थी । किरचें निकालना मुश्किल था, यह बात न थी । उन्होंने प्रायः इनसे भी सूक्ष्म किरचें पलक झपकते निकाल दी थीं, परन्तु रोगिणी इंजक्शन कराने से घबराती थी, पिचकारी और सुई की सूरत देखते ही उसे बेहोशी-सी आने लग जाती । जड़ें खोखली थीं और दाढ़ जीर्ण-शीर्ण । जहाँ डाक्टर उसे जम्बूर से पकड़ते, वहीं टूट जाती । अब यह हालत हो गई थी कि औज़ार लगते ही वह तड़फ़ उठती थी । हाथ लगाना तक कठिन
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हो गया था । जो साधारण इंजक्शन तक नहीं करने देती वह मैंडीकुलर कब करने देगी और बिना उसके किरचें निकल न सकती थीं। यही कारण था कि डाक्टर साहब घबरा कर बाहर निकल गये थे। रोगिणी सम्पन्न और समृद्ध घराने से सम्बन्धित थी । डाक्टर साहब इनकार भी न कर सकते थे। सुबह से बिना नहाये धोये उसकी दाढ़ निकालने में लगे थे । उन्हें खून पसीना करके कमाई हुई अपनी ख्याति पर पानी फिरता हुआ दिखाई दिया । चिन्ता और परेशानी के कारण इस शीत में भी उनके माथे पर पसीना आ गया |
सर्जरी में पुनः दाखिल होने पर डाक्टर साहब अपनी कुर्सी के समीप कुछ क्षण के लिए मूक, निस्तब्ध खड़े रहे । सामने 'नाइट्रस आक्साइड गैस' का प्रेटस पड़ा था । किन्तु हरिकुमार उसको गैस से बेहोश करने का साहस न कर सकते थे । वह अत्यन्त दुबली-पतली और कमज़ोर दिलवाली स्त्री थी । आशंका थी कि गैस से कहीं उसका दम ही न निकल जाय। उन्होंने एक बेर कराहती हुई रोगिणी के चेहरे को देखा और प्रेटस पर हाथ रक्खे कुर्सी के गिर्द घूमे । ख्याति को बनाये रखने के लिए वे खतरा मोल लेने को तैयार थे ।
" कदाचित् यह गैस को सहन न कर सके ।" रोगिणी के पति लाला जुगलकिशोर ने कहा ।
डाक्टर साहब का हाथ प्रेटस से फिसल गया और हताश - से खड़े रह गये ।
वे
" मेरा खयाल है, मैं इन्हें अस्पताल ले जाकर साहब को दिखलाऊँ ।"
"नहीं आप इन्हें ज़रा आराम करने दें । मेरा सिस्टेंट प्रयोगशाला में है। उसके आने पर मैं एक खास प्रिपेरेशन तैयार करके किरचें निकाल दूँगा । घबराइए नहीं ।" यह कहकर डाक्टर सर्जरी से बाहर निकल - आये और अपने प्राइवेट कमरे में जाकर कौच पर धँस कर बैठ गये ।
यदि लाला जुगलकिशोर चेहरे की श्राकृति से हृदय की अवस्था समझने का तनिक भी ज्ञान रखते होते तो उन्हें ज्ञात हो गया होता कि डाक्टर हरिकुमार सर्वथा
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