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संख्या ४]
मेइजी
'यही देवालय है', यदि ऐसा कहा जाय तो आप
कह उठेंगे, 'मज़ाक
कर रहे हैं क्या' । यहाँ
न कोई कारुकार्य हैं,
न प्रस्तरशिल्प, न सोने
का काम है, न चाँदी
का । न संगमरमर की दीवारें हैं, न उन पर बहुमूल्य रत्नों की पच्चीकारी । छत देखने से पुत्राल की
मोटी छत-सी मालूम होती है। दीवार और
तोक्यो शहर
।
खंभों की लकड़ी पर एक बूँद भी वार्निश नहीं लगाई गई द्वार पर की दो-तीन लटकती पुत्राल की रस्सियों का शृंगार तो नहीं कह सकते । चाहे आपको विश्वास हो या न हो, यही मेइजी देवालय है। शिन्तो- देवालय का अत्यन्त सादा और झोपड़े के आकार में बनाना धार्मिक नियम समझा जाता है, इसी लिए यह सादगी दीख रही है । १६१२ ई० में सम्राट् का शरीर अन्तिम कृत्य के लिए यहीं रक्खा गया था, इसलिए यह स्थान अत्यन्त पवित्र समझा जाता है ।
वहाँ से अब हम फिर जंगल में घुसे । अब की हमें ऐसा रास्ता मिला, जो वस्तुतः ही जङ्गल का मालूम होता था। कहीं कहीं देवदार जातीय वृक्षों की सुई के आकार की पत्तियाँ पड़ी थीं, जिन पर बैठे हुए दम्पती अपने बच्चों का खेल देख रहे थे । कहीं सारा परिवार बैठा मिठाई खा रहा था। कहीं कहीं तरुण-तरुणियों की प्रणय कथा जारी थी। कहीं कुत्ता फेंके गेंदे को मुँह में दावे मालिक के पास ले जा रहा था । आखिर हम घोड़-दौड़ के मैदान के पास पहुँचे । पास में ही वेस - बाल खेलने का क्रीडा क्षेत्र है । श्राज वासेदा यूनिवर्सिटी का किसी दूसरी यूनिवर्सिटी से मैच था। मैच देखने के लिए पचास हज़ार
फा. ५
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[सुमिरा नदी का एक पुल ]
आदमियों की भीड़ जमा हुई थी। समय समय पर ताली या शब्द की आवाज़ हमें भी सुनाई दे रही थी । खैर, हमें मैच देखने की कोई इच्छा भी नहीं थी, किन्तु इच्छा होने पर वह उतना आसान न था । तोक्यो के ५४ लाख आदमियों में खेलों के शौकीन बहुत अधिक हैं । पहले तो टिकट ही कुछ घण्टे में बिक जाते हैं। यदि टिकट मिल गया तो भी आपका ३६ घण्टा पहले श्राकर क़तार में खड़ा होना होगा। यदि खुद नहीं आ सकते तो आपके एवज़ में खड़े होनेवाले भाड़े के लड़के मिल सकते हैं । यदि नागवार हो तो तिगुने-चौगुने दामों पर अपने टिकट को बेच लें ।
वहीं और एक विशाल दुमहली इमारत है, यही मेइजी चित्रशाला है । हमारे वहाँ पहुँचते-पहुँचते पाँच बजने में १० मिनट रह गये थे । दरवाज़े के बाहर की चीजें जल्दी जल्दी भीतर रक्खी जा रही थीं। हम तो हताश हो गये थे, किन्तु कहा गया- आप जा सकते हैं, और कुछ देर तक देख भी सकते हैं, निकलने का रास्ता दूसरा है । चित्रशाला की इमारत बाहर से विशाल मालूम होती है, किन्तु भीतर जाकर और विशाल मालूम होती है । दीवारें ठोस तथा संगमरमर जैसी मालूम होती । दो
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