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सरस्वती
स्वदेश लौट जाना श्रेयस्कर है । सम्भव है, जिस विजय- श्री को हमने अनेक कष्ट एवं असाधारण वीरता से हस्तगत किया है वह हिन्दुओं की संख्य सेना द्वारा हर ली जाय। माना कि हम वीर हैं और परिणाम की ओर ध्यान दिये बिना वीरोचित शौर्य प्रदर्शित करना हमारा परम कर्तव्य है; परन्तु साथ ही हमारे सम्मुख हमारे ध्येय या लक्ष्य का स्पष्ट एवं निश्चित होना भी परमावश्यक है। हम मातृ भूमि तथा कुटुम्ब के लोगों को सदा के लिए छोड़कर अनन्त की ओर नहीं जा सकते। सैनिकों की यह भावना- कामना सिकन्दर से छिपी नहीं रही । एक दिन उसने उनकी विचारधारा को अपने अनुकूल करने के हेतु उत्तेजना-भरे शब्दों में कहा- प्यारे सैनिको ! कठिन से कठिन मर्मभेदी दृश्य देख सकने की क्षमता रखनेवाला तुम्हारा सम्राट् आज तुम्हारे हृदय से युद्ध तृष्णा का लोप होते देखकर दुःख से कातर हो रहा है। क्या नहीं जानते कि क्षात्र धर्म के कर्म - क्षेत्र में जुट जाने के बाद सैनिक का दुर्बलता दिखाना सांघातिक होता है ? क्या नहीं जानते कि अधीर होकर आज्ञा भंग करना सैनिक के जीवन भर की साधना को निष्फल कर देता है ! वीरो ! उठो । हृदय क्षणिक दौर्बल्य को दूर करके मेघ-निर्मुक्त सूर्य की भाँति द्विगुणित तेज 'चमक उठो । मैं विश्वास दिलाता हूँ कि गंगा के पूर्वी शक्तिशाली साम्राज्य में यूनानी झंडा फहराने के अनन्तर माता के स्नेह से भी अधिक पवित्र जन्मभूमि के दर्शनार्थ निश्चय लौट चलूँगा ।
सैनिकों के मन में सिकन्दर की बात का कुछ भी असर नहीं पड़ा । वे पूर्ववत् उदासीन-भाव से चुप्पी साधे रहे। तब घुड़सवार सेना का नायक कानोस सैनिकों की ओर से उनका मन्तव्य व्यक्त करने के लिए खड़ा हुआ । उसने कहा सम्राट् ! आप जानते हैं कि दिग्विजय के निमित्त यूनान से कितने योधा निकले थे और इस समय आप देख ही रहे हैं कि उनमें से कितने साथ में हैं। युद्ध की भीषण ज्वाला ने
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[ भाग ३६
हमारे अनेक सैनिकों को भस्मीभूत कर दिया । तुधा, पिपासा और रोग की असह्य यन्त्ररणा ने कितनों को संसार से सदा के लिए उठा लिया। जो शेष रह ये हैं उनकी भी अवस्था चिन्तनीय है । निरन्तर कष्ट से सामना करने के कारण उनका शरीर जर्जर हो गया है- अब उनमें पहले जैसा न उत्साह है, न बल | अतः अब उन्हें आगे बढ़ने के लिए विवश करने की अपेक्षा स्वदेश लौटने की अनुमति देना उपयुक्त होगा । सम्राट् ! अनेक विजयों के पश्चात् स्वजनों से मिलने के लिए अवकाश लेना ही चाहिए । निरन्तर अत्यधिक साहस के कार्य में निरत रहने से मनुष्य की कौन कहे, ईश्वर तक प्रतिकूल हो जाते हैं ।
कानोस की बातें सुनकर सिकन्दर के मन में क्रोध का भाव जाग्रत हुआ । परन्तु परिस्थिति को प्रतिकूल देखकर उसने उच्च किन्तु गम्भीर स्वर में उदासीनता प्रकट करते हुए कहा - सैनिको ! जरा सोचो तो। तुम्हारे सम्राट् को अपने असीम साहस एवं उद्योग के फलस्वरूप इस बैंगनी पोशाक और ताज के सिवा और क्या प्राप्त है ? मैंने लूट में पाई हुई तुम्हारी सम्पत्ति नहीं ली है। मेरा निज का कोई खजाना नहीं है । मैं तुमसे कहीं अधिक सूखा-रूखा भोजन और कठोर परिश्रम करता हूँ । आपत्तिकाल में हिम, वात और वर्षा की तकलीफ़ों की परवा न करके बहुधा रात रात भर जागकर तुम्हारी चौकसी करता हूँ | मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि सैनिकों के लिए अपने प्राणों को सङ्कट में डाल कर जैसाभयङ्कर कार्य मैंने किया है, वैसा शायद ही किसी सैनिक ने मेरे लिए किया हो। क्या किसी यूनानी सैनिक के अङ्ग में उतने घाव हैं जितने मेरे शरीर पर अङ्कित हैं ? वीरो ! जो कुछ तुम्हारे बल पर मैंने किया है वह सब तुम्हारे लिए है तुम्हारी सन्तान के लिए है-यूनान और यूनानी राष्ट्र के उत्कर्ष, कल्याण और अक्षय कीर्ति के लिए है । उसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है । इस पर भी यदि तुम
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