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संख्या ४
रस
३०५
ओज, शुक्र और स्तन्य की वृद्धि होती है।' 'अम्ल- कि यज्ञ के लिए कुछ मधुर द्रव्य संग्रह करना चाहिए, रस जारक और पाचक हैं।' लवणरस 'पाचक अतएव रस ही प्रधान है। रस-द्वारा ही द्रव्य की
और संशोधक है।' कटुरस 'पाचक, रोचक, गुण-संज्ञा है । कुछ आचार्य ऐसे हुए हैं जिन्होंने इन अग्नि को दीप्तिकर और संशोधक है।' तिक्तरस दोनों मतों को स्वीकार नहीं किया। उनका कहना 'रुचिकर और दीप्तिवर्द्धक है।' कषायरस 'संग्रा- है कि वीर्य प्रधान है। उनका तर्क यह है कि “वीर्य हक अर्थात् मलमूत्र और श्लेष्मा आदि को रोकता के गुण से ओषधि का काम चलता है। वीर्य अपने है।' पर इन्हीं रसों को अधिक मात्रा में सेवन करने बल और गुण से रस को अतिक्रम कर कार्य कर से वात, पित्त आदि दोषों की वृद्धि होती है। फिर सकता है।" इस विषय का विवेचन करने में वे दोषों के विदग्ध और अविदग्ध की विवेचना कर ये कहते हैं कि त्रिदोष में का कोई दोष अोषधि-द्वारा ही छत्तीस प्रकार के रस होंगे।
पूर्णतः शमन नहीं हो सकता, यदि वीर्य दोषयुक्त उक्त मत को सभी आचार्यों ने स्वीकार नहीं है। इसी कारण वीर्य को प्रधान मानते हैं। आधुकिया। कोई कोई द्रव्य, रस, गुण और वीर्य को निक सभ्यता के साथ वे बीमारियाँ भी बढ़ी जिनकी प्रधान बतलाते हैं। उनके मतानुसार द्रव्य प्रधान बदौलत इस देश के नवयुवकों का स्वास्थ्य ऐसा कारण है। उनका यह भी कहना है कि पहला चौपट हुआ कि दिन-रात मृत्यु को आमन्त्रित करने द्रव्य व्यवस्थित तथा रस आदि अव्यवस्थित में कटते हैं। वे देश की क्या सहायता कर सकेंगे? हैं, जैसे-'अपक्व फल में जिस प्रकार रस गुण पहले अपनी सहायता कर लें। केवल भू-भार बने मालूम होता है, उसी प्रकार पक्व फल में नहीं होता। हुए हैं और समाज को दूषित कर रहे हैं। सबसे दूसरा-द्रव्य नित्य और रस गुण आदि अनित्य हैं। दुःख की बात तो यह है कि न तो अपने कर्मों का उनका तर्क यह है कि "द्रव्य जातीय गुण नित्य पश्चात्ताप है और न लज्जा है, वरन अपने घृणित अवलम्बन करता है, और पञ्चेन्द्रिय-द्वारा द्रव्य ही रोगों को अपनी युवावस्था का सार्टीफिकेट कहते लिया जाता है, रसादि नहीं, क्योंकि द्रव्य आश्रय हैं। ईश्वर ही उस देश की रक्षा करे जिसके ऐसे तथा रस उसका आश्रित है।" फिर "ओषधि के नवयुवक हो । एक अँगरेजी विद्वान् ने वीर्य को गुण-वर्णन की जगह द्रव्य का ही नाम लिया सफेद खून कहा है और एक ने जीवन-रक्त कहा है। जाता है, रस का नहीं । ओषधि--योग-वर्णन की अपनी भाषा में भी वीर्य के अर्थ बल और कान्ति के जगह शास्त्र में द्रव्य को ही प्रधान बतलाया है। हैं। इसी की रक्षा करके प्रातःस्मरणीय भीष्म ने छः रसादि का गुण अवस्था सापेक्ष है, जैसे तरुण द्रव्य महीने तक शरशय्या पर विश्राम किया था। अस्तु । का तरुणरस, पक्व द्रव्य का पक्वरस" और "द्रव्य एक और भी मत है। उसके अनुयायियों का के एकांश से व्याधि की शान्ति होती है।" इन्हीं सब विचार है कि परिपाक मुख्य है, क्योंकि खाया हुआ कारणों से रस से द्रव्य को प्रधान माना है। पदार्थ जब तक नहीं पचेगा तब तक रस कैसे पैदा
जिन आचार्यों ने रस को प्रधान माना है उनका होगा। किसी किसी का यह भी कहना है कि "प्रत्येक यह मत है कि (१) प्राणियों का जो आहार है वह रस से परिपाक होता है।" इसमें भी मतभेद है। रस से परिपूर्ण है और उसी से वे जीवन-धारण करते किसी का यह कहना है कि 'मधुर, अम्ल और कटु हैं। (२) गुरूपदेश की जगह रस ही उपदेश का में ही केवल परिपाक होता है।' फिर कोई यह कहता विषय होता है । (३ अनुमान की जगह रस द्रव्य है कि 'मृदु रस बलवान् रस का अनुगामी होता है।' अनुमित होता है। (४) ऋषि-वचन में भी कहा है यदि खोज न बन्द हो गई होती तो एक मत निश्चित
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