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.. संख्या ३]
पग-ध्वनि
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वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! बढ़ता जाता घुघरू का रव ! क्या यह भी हो सकता संभव ? यह जीवन का अनुभव अभिनव !
पदचाप शीघ्र, पग-राग तीव्र, स्वागत को उठ रे कवि मानी !
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! ध्वनि पास चली मेरे श्राती! सब अंग शिथिल पुलकित छाती ! लो गिरती पलकें मदमाती !
पग को परिरंभण करने की, पर इन भुज-पाशों ने ठानी।
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! रव गूंजा भू पर, अंबर में, सर में सरिता में, सागर में, प्रत्येक श्वास में, प्रति स्वर में;
किस किस का आश्रय ले फैलेमेरे हाथों की हैरानी।
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी! ये ढूँढ़ रहे ध्वनि का उद्गम, मंजीर मुखरयुत पद निर्मम, है ठौर सभी जिनकी ध्वनि सम,
इनको पाने का यत्न वृथा, श्रम करना केवल नादानी।
यह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! ये कर नभ-जल-थल में भटके, आकर मेरे उर पर अटके, जो पग-द्वय थे अंदर घट के,
थे ढूँढ़ रहे उनको बाहर, ये युग कर मेरे अज्ञानी ।
वह पग-ध्वनि मेरी पहचानी ! उर के ही मधुर अभाव चरण बन करते स्मृति-पट पर नर्तन, मुखरित होता रहता बन-बन,
मैं ही इन चरणों में नूपुर, नूपुर-ध्वनि मेरी ही वाणी !
इटली और अबीसीनिया (रिव्यू श्राफ रिव्यूज़ से)
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