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बिदा
श्रीयुत नरेन्द्र, बी० ए० आओ रानी, बिदा माँग लूँ ,
लाज नहीं अब प्रेम बनो तुम, चूम तरुण कलियों से लोचन ।
भक्ति बनूँ कर लूँ पद-पूजन । आओ सजनि, इन्हें समझा हूँ,
उर की प्रतिमा का अर्चन कर, व्यर्थ न खोयें नेह-नीर-कन।
सफल करूँ सब जन्म-मरण-श्रम। प्रिय असह्य होंगे वे आँसू , पूर्ण प्रेम की थाली में भर देखो छोड़ न देना धीरज । अक्षत पद-रज, रोली जावक बिदा-समय है क्षण भर को भी, नक्षत्रों से आज सजा दो,
म्लान न हों नयनों के नीरज । अस्त सूर्य-सा आनत मस्तक । प्राण, मिलन दिन के शुभ-अवसर
आओ करुणाकर पद-रज दो के हित आँसू रखना सञ्चित ।
जीवन कर दो शिवमय सुन्दर, उस दृग के मुसकान-अथ के,
सुर-सरिता-सम शोभित होगा हर्ष–इन्द्रधनु से हों शोभित ।
पद-रज का अभिषेक शीश पर। दिन गिनते दिन बीत जायँगे, पतिव्रता या प्रेम-व्रता के, प्रिय, गृह में रह या प्रवास में। चरणों की अनमोल धूलि से हलकी होगी व्यथा-विरह की, निकले थे ये रवि शशि तारक,
प्रीति प्यास विश्वास आस में। चिरप्रकाश जो पथिक विश्व के। दूर रहूँ या पास, तुम्हारे,
तुम आराधन, तुम आलिङ्गन, श्रीचरणों का दास रहूँगा
तुम ही सतत साधना, रानी ! नित अमूर्त को मूर्त बनाने
वेद तुम्हारी वाणी होगी, का दुर्लभ अभ्यास करूँगा।
सुन मन होगा ज्ञानी, ध्यानी। तम के अगम मर्म लिखते जो, सरले ! अपनी गरिमा महिमा, रजनी के बालक नभ-तारक सोचो, स्वयं भला क्या जानो ? स्वप्न-घनों की सघन छाँह में, मेरे मन-मन्दिर के दीपक,
मुझे दिखायेंगे तुम तक पथ । निज प्रकाश तुम क्या पहचानो? प्रेम-योग-बल से चित्रित कर,
स्नेह-सुरभियुत तुम पद्माकर, मैं, प्रफुल्ल पद्मों से लोचन
मैं मधु-अभिलाषी कवि-मधुकर, श्याम-पुतलियों की सुख-निशि में
चरणाम्बुज छू, चलूँ बिदा दो, ले विश्राम हरूँगा भव-श्रम ।
मैं समीर-सम सौरभ भर भर । अभिलाषा आह्वान करेगी सुमुखि, बिदा दोआज विश्व में, स्वप्न-यान में तुम उतरोगी प्रेम-नाम की सुरभि बसेगी। सोने के घन से ऊषा-सी
आज पास तक, कल प्रवास तक, श्रा, नयनों में वास करोगी। प्रेम-डोर कुछ और बढ़ेगी।
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