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इसका कैसा उपयोग करते हैं ? इसका कैसा उपयोग होना चाहिए ? हमारी प्रकृति, प्रवृत्ति, परिस्थिति और शक्ति के अनुसार इसका क्या उपयोग किया जा सकता है ? क्या प्रत्येक विचारवान् पाठक को इन प्रश्नों पर तुरन्त विचार नहीं करना चाहिए ?
(१२) हम लेख के प्रारम्भ में कह आये हैं कि "सकल पदारथ हैं जगमाहीं । कर्महीन नर पावत नाहीं ॥" उसी सिलसिले में वह भी कहा गया है कि कुछ स्थायी और मूल्यवान पदार्थ ऐसे भी हैं जो सचमुच दुर्लभ हैं जो सत्कर्मशील और पुरुषार्थी व्यक्तियों को भी शीघ्र नहीं मिल सकते । तत्र ऐसा भाग्यवान् श्रादमी कौन है जो इन तथा ऐसी सब दुर्लभ चीज़ों को प्राप्त करना चाहे तो
सरस्वती
वासन्ती मधु कानन से मलयानिल बहता आता; मुझ भाग्यवान पर निशि - दिन
स्वर्गीय सुधा बरसाता । मुझ देवलोकनायक की मुसकान भरी उडुगरण में; मेरी सुकीर्ति छाई है सुरतरु के भव्य सुमन में ।
रत्नों की भेंट चढ़ाता चरणों पर बढ़ रत्नाकर; मेरा शृंगार सजाता राकापति भेज अयुत कर ।
मौलिक
लेखक, श्रीयुत कपिलदेव नारायण सिंह 'सुहृद'
कोकिल की मधु काकिल से
पाता मैं गायन का स्वर; नित कुसुम - कुलों से मिलती मुसकान मुझे नव सुन्दर
।
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अवश्य प्राप्त कर ले ? इस प्रश्न का उत्तर गुसाई जी ही देते हैं – “परहित बस जिनके मन माहीं । तिनकीँ जग दुर्लभ कछु नाहीं || इस लेख में जितने दुर्लभ पदार्थ बतलाये गये हैं और जो नहीं बतलाये गये हैं वे भी परोपकारी और पुरुषार्थी प्राणी को (यदि वह प्राप्त करना चाहे तो ) अवश्य मिल सकते हैं। परहित के सिक्कों से नक़ली नहीं, असली सिक्कों से आप संसार में किसी भी अत्यन्त दुर्लभ पदार्थ को ज़रूर खरीद सकते हैं ।
[ भाग ३६
विचार करने की बात है कि महात्मा तुलसीदास जी जिन पदार्थों का दुर्लभ बतलाया है वे यथार्थ में दुर्लभ हैं या नहीं |
कंचन-पट के घूँघट में हँस संध्या मुझे बुलाती; बालार्क तिलक देने को
ती ऊषा मदमाती ।
कुत्सित जग की धारा में कविता की नाव बहाते; - लहरों पर मैं बहता हूँ स्वर्गिक संगीत सुनाते । मैं तिलक प्राच्यन्नभ का हूँ मैं उषा- देश की छवि हूँ;
मैं प्रकृति-परी का पागल
सुकुमार सलोना कवि हूँ ।
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