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सरस्वती
[ भाग ३६
कला तो सदा नाटकीय ही रही है। उन्होंने बीस दोनों दल इसके लिए दोषी नहीं ठहराये जा सकते । से अधिक नाटक लिखे हैं, परन्तु यहाँ केवल उनके जीवन का कुछ ढंग ही निराला है। बुद्धि से परे है। तीन नाटकों के आधार पर ही उनकी नाटक-कला संसार में क्यों इतना नाश हो रहा है, इसका उत्तर का परिचय दिया जायगा।।
नाटककार के लिए रहस्यमय है। असल में मनुष्य चांदी को डिबिया
का दिल ही तंग है; दूसरे पक्ष के विचारों और भावों सबसे पहले उन्होंने 'चाँदी की डिबिया' नाम का के समझने से वह इनकार करता है। लेखक दोनों नाटक लिखा । इस नाटक में जैक और जोन दोनों दलों से सहानुभूति प्रकट करता है, उनका खण्डन पात्र चोरी के अपराध में एक ही शाम को पकड़े नहीं करता। “जाते हैं। जैक एक महिला की थैली को चुराता है
न्याय और जोन चाँदी की डिबिया । बहुत-सी बातों तीसरा नाटक 'न्याय' है। इसमें फाल्डर क्लर्क में दोनों का अपराध बराबर है। परन्तु दोनों में का काम करता है। वह कमजोर स्वभाव का एक भारी अन्तर है। जैक अमीर घराने का लड़का आदमी है। मुँह पीला है, हृदय उदार है। एक है। उसका बाप पार्लियामेंट का सभासद् है। उधर महिला को पीड़ित देखकर उसे दया आ जाती है। जोन एक दीन निर्धन तीन पुत्रों के बाप का पुत्र ममता में आकर उसका पति बनकर भागने की है। अभियोग चलाया जाता है। जैक बरी हो जाता ठान लेता है। नौ पौंड के एक चेक को नब्बे पौंड का है। जोन एक मास के लिए कैद किया जाता है। बनाकर बैंक से धन ले लेता है। साथ ही पैसा कमानाटककार ने उसके द्वारा एक गम्भीर सामाजिक कर फिर लौटा देने का निश्चय करता है। वह धोखे समस्या का नग्न-चित्र सामने रक्खा है। वह यह में आ जाता है और पकड़ा जाता है। न्यायालय में कि अमीर के लिए एक न्याय है तो ग़रीब के लिए उस पर अभियोग चलता है। वकील उसको मुक्त दूसरा है।
कराने की कोशिश करता है। कहता है कि यह मन का हडताल
रोगी है, अपराधी नहीं है। जज उसको अपराधी उनका दूसरा नाटक 'हड़ताल' है। इसमें कार- ठहराकर जेल में लूंस देता है। कैद से मुक्त होकर खाने के स्वामी और मजदूरों के संग्राम का चित्र है। जब वह बाहर आता है तव जीवन कठोर पाता है। मजदूर हड़ताल कर देते हैं। दोनों दलों के प्रति- कमजोर दिल के लिए यह जीवन का संग्राम निधियों में समझौता कराने के लिए उनकी सभा कठिन है। न्याय से फिर एक बार टक्कर होती होती है। समझौता नहीं होता है । मजदूर भूखों है। उससे बचने के लिए आत्म-घात कर लेता है। मरते हैं, और स्वामियों का भारी नुकसान होता है। इस आत्म-घात के लिए कौन दोपी है, फाल्डर दोनों दलों के लीडर अपना सम्मान कायम या समाज ? लेखक की दृष्टि में समाज बड़ा कठोर रखने के लिए डटे हुए हैं। स्त्रियों और बच्चों के कष्टों और निर्दय है। यह एक मशीन है जिसमें कई की कोई सीमा नहीं रहती। अन्त में दोनों दलों के निर्दोष पुरुष पिस जाते हैं। मनुष्य का इस पर कोई लीडर निकाल दिये जाते हैं और वही शर्ते मानी अधिकार नहीं। इसका सुधार होना असम्भव-सा है। जाती हैं जो हड़ताल के आरम्भ में पेश की गई थीं।
निराशावाद यही तो रोने और हँसने की बात है। इस संग्राम में तब क्या गाल्जवर्दी निराशावादी है। यदि जीवन किसी को लाभ नहीं हुआ, परन्तु हानि की कोई का यही सार है तो उनके निराशावादी होने में क्या सीमा नहीं रही, यहाँ तक कि कई भूख से मर गये। दोष है ? सर्व-शक्तिमान विधाता के सामने निर्बल
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