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संख्या ३]
दुर्लभ पदार्थ
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वेद का कथन है कि करोड़ों विरक्तों में से यथार्थ होता है कि अटल वीरता दुर्लभ है, किसी वचन का ज्ञान प्राप्त करनेवाला कोई विरला एक होता है। और- आशय है कि श्रेष्ठ मृत्यु का स्वर्ण संयोग दुर्लभ है, किसी ज्ञानवंत काटिक मँह कोऊ । जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ॥ से मालूम होता है कि तपस्विता-पूर्ण जीवन दुर्लभ है और
करोड़ों ज्ञानियों में जीवनमुक्त तो काई विरला ही किसी विवेचन से पता चलता है कि धर्मशीलता, विषयहोता है । और --
विमुखता, निर्मल ज्ञान, जीवनमुक्ति, ब्रह्मलीनता, और तिन सहस्र महँ सब सुख खानी । दुर्लभ ब्रह्मलीन विज्ञानी॥ भक्ति दुर्लभ और मूल्यवान् हैं । परन्तु जब यह मनुष्य
हज़ारों जीवनमुक्तों में सम्पूर्ण आनन्द से परिपूर्ण शरीर ही न रहे तब सत्संग कैसे मिले, जब शरीर न हो तब विज्ञानी और परमात्मा में लीन रहनेवाला पुरुष तो और अच्छा आचरण किसके द्वारा किया जाय, जब शरीर ही भी अधिक दुर्लभ है -ऐसा आदमी संसार में बड़ी कठि. न रहे तब सद्गुणी पुत्र कैसे मिले, शरीर के अभाव में नाई और महान् सौभाग्य से ही मिल सकता है। धर्मशीलता, तपस्या, विरक्ति, ज्ञान और भक्ति के लिए ___तात्पर्य यह है कि अरबों-खरबों आदमियों के इस साधन किसे बनाया जाय ? इसलिए उत्तरकाण्ड के अन्त संसार में धर्म-व्रती बहुत थोड़े हैं, धर्म-व्रतियों में भी विरक्त में जो कहा गया है कि मनुष्य-शरीर-रूपी दुर्लभ पदार्थ की
और विषय-प्रेम-त्यागी सभी नहीं होते-कोई कोई ही होते भावना सभी करते हैं, वह हमारी तुच्छ बुद्धि के अनुसार हैं, विरक्तों में भी सब यथार्थ ज्ञानी नहीं होते और ज्ञानियों निरन्तर ध्यान में रखने योग्य है। कागभुशुंडि जी गरुड़ में भी ब्रह्मलीन प्राणी तो बड़े दुर्लभ हैं । “धर्मशील विरक्त से कहते हैं - अरु ज्ञानी । जीवनमुक्त ब्रह्म पर प्राणी।" और ईश्वरानु- नर तनु सम नहिं कवनेउ देही। जीव चराचर याचत जेही। रागी होना तो इन सबमें भी अत्यन्त दुर्लभ है- “सब नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी । ज्ञान विराग भक्ति सुख देनी। ते सो दुर्लभ सुरराया। रामभक्ति रत गत मद माया ।" यह अमूल्य शरीर स्वर्ग और अपवर्ग की सीढ़ी हैमोह, ममता, वासना आदि का त्याग कर निष्काम भक्ति इसके द्वारा परम सुखदायक ज्ञान, विराग और भक्ति का करनेवाले तो महान् दुर्लभ हैं। देखा आपने, गुसाई साधन इच्छानुसार किया जा सकता है। परन्तु कैसा शरीर जी ने वेदों का सहारा पकड़कर और गहरी छानबीनकर दुर्लभ है ? क्या जड़ शरीर ? क्या नरक दिलानेवाला किस क्रम से पहले दूध, दूध से दही और छाँछ, छाँछ से शरीर मूल्यवान् है ? क्या इसी की इतनी प्रशंसा की जा मक्खन और मक्खन से घी निकाला है । तात्पर्य यह है कि रही है ? नहीं, दुर्लभ है पुरुषार्थी शरीर, जिसकी आत्मा धर्मशीलता दुर्लभ है, उससे अधिक दुर्लभ है विरक्ति, जाग्रत और चैतन्य हो, जो अपने भीतरी शत्रुओं से विरक्ति और विषय-विमुखता से भी अधिक दुर्लभ है सम्यक् आजीवन युद्ध करता रहे और जो मूर्ख की तरह काँच का ज्ञान, ज्ञान से भी अधिक दुर्लभ अवस्था है जीवनमुक्ति सौदा न कर मणि का सौदा करे। श्रीमान् शङ्कराचार्य तथा जीवन-मुक्ति से भी अधिक दुर्लभ है ब्रह्मलीनता जी कहते हैं- "मनुष्य-जन्म, मोक्ष की इच्छा और
और ब्रह्मलीनता से भी अधिक दुर्लभ है ईश्वरभक्ति । महापुरुषों का सत्संग, ये तीनों दुर्लभ हैं-ये तभी ___ गुसाई जी की रामायण के जो अमूल्य वचन यहाँ मिलते हैं जब ईश्वर की कृपा हो ।" जब मनुष्यदिये गये हैं उनसे क्या सिद्ध होता है ? किसी वचन से शरीर ही न हो तब मुमुक्षु कौन बने और सजनों का सिद्ध होता है कि मनुष्य-शरीर दुर्लभ है, किसी से मालूम सत्संग कौन करे ? मूल कारण तो यह शरीर ही है। इसी होता है कि सत्संग अत्यंत दुर्लभ है, किसी चौपाई से पता लिए यह अत्यन्त दुर्लभ बतलाया गया है । परन्तु हम चलता है कि मनसा-वाचा-कर्मणा आचरण की एकता दुर्लभ है, किसी से मालूम होता है कि खरी और कल्याण- * दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम् । कारी बातें कहने-सुननेवाले दुर्लभ हैं, किसी से मालूम मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुषसंश्रयः ।।
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