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संख्या ३]
दुर्लभ पदार्थ
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अपना उल्लू सीधा करना हो तो खुशामद की बातें करते साहित्य को देखकर उसके गुण न बतलावे, द्वेष, उदाजाइए- दिन को रात कहते जाइए। दुनिया में न तो सीनता या अभिमान से चुप्पी साध ले, तो लेखक या कवि चिकनी-चुपड़ी बातें करनेवालों की कमी है, न चिकनी- का हृदय फटने लगेगा। जो मर्मज्ञ समय पर किसी रचना चुपड़ी सुननेवालों की । “प्रिय वाणी जे सुनहिं जे कहहीं। के गुण प्रकट करता है और आनन्द प्रदर्शित करता है ऐसे नर निकाय जग अहहीं ।। (लंकाकांड,” परन्तु संसार वह सचमुच दुर्लभ है। में ऐसे कितने श्रादमी हैं जो दूसरों को सच्चा लाभ पहुँ- (७) प्राण के रहते तक अपने प्राण और सिद्धान्तों चाने के इरादे से कुछ खरी और कड़ी बातें निर्भयतापूर्वक का निर्वाह प्रत्येक परिस्थिति में करनेवाले वीर संसार में कम कहने का साहस रखते हैं ? बहुत थोड़े। और ऐसे कितने
मिलते हैं। लड़ाई में शत्रु को कभी पीठ दिखाकर न विचारशील आदमी हैं जो ऐसी हितदायक परन्तु कठोर भागनेवाले और पराई स्त्री की ओर जन्म भर कभी कुदृष्टि बातों को शान्तिपूर्वक सुनना चाहते हैं ? बहुत थोड़े।
न करनेवाले वीर सचमुच दुर्लभ है । गिरिजापूजन के लिए रामायण की राय है कि ऐसी खरी खरी कहनेवाले भी आई हुई सीता को देखकर राम ने लक्ष्मण से ऐसा ही दुर्लभ हैं और शान्तिपूर्वक सुनने वाले भी । “वचन परम कहा था- "जिनके लहहिं न रिपु रण पीठी । नहिं लावहिं हित सुनत कठोरे। सुनहिं कहहिं ते नर जग थोरे। पर तिय* मन दीठी ॥ मंगन लहहिं न जिनके नाहीं । (लङ्काकाण्ड)"
ते नर वर थोरे जग माहीं ॥ (बालकाण्ड," और जो (६) अपने हाथों की बनाई हुई कोई भी चीज़ बहुत भिखारियों को कभी भी विमुख नहीं फेरते ऐसे उत्तम पुरुष अच्छी मालूम होती है । यह स्वाभाविक अवस्था है । श्राप भी संसार में बहुत थोड़े हैं। शत्र को कभी भी पीठ न एक ज़रा-सी टोपी, रूमाल, बेंच, किसी किताब की जिल्द न दिखाना, व्यभिचार से-मानसिक व्यभिचार से भीया और कुछ बनाकर देखिए । वह बहुत सुन्दर मालूम आजीवन बचे रहना और भिक्षकों को कभी भी "नाही" होगी । अपनी रचना में आपको प्रायः दोष दिखलाई नहीं कहना साधारण बातें नहीं हैं-इन बातों का निर्वाह ही न पडेगा। जो हाल शिल्पियों, चित्रकारों और कला- करनेवाले पुरुष दुर्लभ ही हैं। विदों का है, वही हाल साहित्य-शिल्पियों, शब्द-चित्रकारों (८) तपस्या ही वह उपाय अथवा साधन है जिसके
और काव्य-कलाधरों का है। अपनी बनाई हुई तुकबन्दी द्वारा बड़े-बड़े आश्चर्यजनक काम किये जा सकते हैं । अच्छी हो या खराब, अच्छी ही मालूम होगी- रसिकता तो विलास-प्रेमी प्राणी कभी तपस्या कर ही नहीं सकता। इसी में है कि दूसरों की अच्छी रचना हमें स्वभावतः तपस्या अंत में परम सुखदायक परिणाम तो उत्पन्न करती अच्छी मालूम हो । परन्तु दूसरों की रचनाओं को देख- है, परन्तु श्रारम्भ में वह बड़ी कष्टदायक मालूम होती है। सुनकर खुश होनेवाले सहृदय सज्जन दुर्लभ होते हैं । इसी इससे शरीर का तो पोषण नहीं होता-श्रात्मा का होता लिए गुसाई जी कहते हैं-"निज कवित्त केहि लाग न है। तपस्वी का शरीर प्रायः क्षीण परन्तु तेजवान होता है। नीका । सरस होय अथवा अति फीका ।। जे पर भणित तप के बल पर ब्रह्मा विश्व की रचना करते, विष्णु सृष्टि सुनत हरषाहीं । ते वर पुरुष बहुत जग नाहीं।" की रक्षा करते और शिव संसार का नाश करते हैं । कठिन
जो लोग किसी नव-रचित ग्रन्थ या कविता की कद्र तपस्या के द्वारा ही पार्वती ने असम्भव काम कर दिखाया नहीं जानते वे यदि कुछ समझे बिना यों ही उसकी प्रशंसा करने लगें तो उसके लेखक या कवि को अानन्द तो न * सुग्रीव राम से कहने लगेहोगा-उलटे उसका हृदय फटने लगेगा -"असमझ नारि नयन शर जाहि न लागा । घोर क्रोध तम निशि जो जागा।। वार सराहिबो" की तरह "समझ वार को मौन" भी कष्ट- लोभ पाश जेहि गर न बँधाया। सेो नर तुम समान खुराया । दायक है। यदि कोई जानकार या मर्मज्ञ किसी अच्छे
(किष्किन्धा-काण्ड) फा.४
ता
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