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कोकिल !
हिन्दी कविता के वर्तमान स्वरूप का श्रेय अधिकतर श्रीयुत सुमित्रानन्दन पन्त को है । उन्होंने एक नई दिशा की ओर कदम बढ़ाया है जो पहले से भी अधिक क्रान्तिकारी और सुन्दर है । आशा है इस रूप में पन्त जी का और अधिक स्वागत होगा ।
( १ ) गा, कोकिल ! बरसा पावक करण! नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन, ध्वंस-भ्रंश जग के जड़-बन्धन; पावक-पग धर आये नूतन, हो पल्लवित नवल मानवपन !
( ३ ) गा, कोकिल, गा, कर मत चिन्तन ! नवल रुधिर से भर पल्लव-तन, नवल स्नेह-सौरभ से यौवनः कर मञ्जरित नव्य जग-जीवन, गूंज उठें, पी-पी नव मधु, जन !
( ४ ) गा, कोकिल, नव गान कर सृजन ! रच मानव के हित नूतन मन, वाणी, वेश, भाव नव- शोभन; स्नेह, सुहृदता हों मानस-धन, सीखें जन नव जीवन-यापन !
लखक
श्रीयुत सुमित्रानन्दन पन्त
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( २ )
गा, कोकिल, भर स्वर में कम्पन ! भरें जाति-कुल-वर्ण-पर्ण घन, अन्धनीड़-से रूढ़ि -रीति छनः व्यक्ति राष्ट्र-गत राग-द्वेष, रण झरें, मरें विस्मृति में तत्क्षण !
गा, कोकिल, सन्देश सनातन ! मानव दिव्य स्फुलिङ्ग चिरन्तन, वह न देह का नश्वर रज-करण; देश-काल हैं उसे न बन्धन, मानव का परिचय मामवपन ! गा, कोकिल, मुकुलित हों दिशि-क्षण !
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