________________
१९२
सरस्वती
[भाग ३६
+
+
+
+
मालवीय जी के संरक्षण तथा संचालन में निकलता है। हैं हालां कि उन्हें कर्ता का चिह्न तक नहीं मालूम है । यह अखिल भारतीय सनातनधर्मसभा का साप्ताहिक मुख- इसके बाद 'पटना' के किसी पत्र में आप प्रफ रीडर पत्र भी है। इसमें सनातन-धर्म-सम्बन्धी प्रति सप्ताह धुरन्धर हुए। बाद को उसके सहकारी सम्पादक हो गये। दो वर्ष विद्वानों के लिखे हुए गुरु-गम्भीर अच्छे अच्छे लेख छपते तक यहाँ रह कर अापने यह 'देखा' कि हिन्दी-पत्रों के
ई के अंक में 'हिन्दी संसार में क्या सम्पादक 'सम्पादकीय' नहीं लिखते हैं, साथ ही पुस्तकदेखा' शीर्षक एक लेख छपा है। इसे डाक्टर बनारसी- प्रकाशकों का भी इसी समय कटु अनुभव हुअा। अब प्रसाद भोजपुरी 'रचनानिधि' ने लिखा है। यह लेख आपको साहित्य-सेवा से घृणा हो गई और आप राजनैतिक सनातनधर्म के किस सम्प्रदाय के किस सिद्धान्त के प्रति- क्षेत्र में काम करने लगे। पादन के लिए लिखा गया है, यह हम नहीं जान सके। तदनन्तर श्राप तीन पत्रिकायों के सम्पादकीय विभागों यह सब बात जानी भी नहीं जा सकती, क्योंकि सनातन- में काम करने के लिए बुलाये गये। एक में इसलिए नहीं धर्म के सम्प्रदाय-भेदों की गिनती ही नहीं है। फिर वह गये कि वहाँ ठीक समय पर वेतन नहीं मिलता था, दूसरी सब जानने की ज़रूरत भी नहीं है । और जो जानने की में इसलिए नहीं गये कि जिनके भरोसे पर जाते थे वे स्वयं ज़रूरत है वह हम यहाँ बताये देते हैं । भोजपुरी जी ने भाग खड़े हुए; तीसरे में जाकर लौट आये, क्योंकि श्राप अपने 'देखा' का समाहार लेख के अन्त में इस तरह किया बलि का बकरा नहीं बनना च
चाहते थे। उसी काल में है। अापने लिखा है-"तेरह वर्ष की साहित्य-सेवा के अापने एक साप्ताहिक को दो लेख भेजे थे जिनका उन्हें बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि हिन्दी-संसार में अधि. पुरस्कार नहीं दिया गया। कांश में अनर्थ, धींगाधींगी और अन्धाधुन्ध ही भरा पड़ा बस इतने अनुभव के बल पर होमियोपेथी के ये है।" रचनानिधि जी ने यह कितना भयानक अारोप डाक्टर साहब यहाँ तक लिखना उचित समझते हैं कि किया है ! यही नहीं, उन्होंने यह भी लिखा है - "जितने “ज़िम्मेदार सम्पादक तथा लेखक पक्षपात के दलदल में हिन्दी पत्रों में लेखकों के नाम छपते हैं उनके ज़्यादातर बेतरह फंसे रहते हैं। उनकी आँखों से न्याय दूर चला 'हाथी के दाँत' ही रहते हैं । हिन्दी की एक लाइन लिखने गया है। और यह सब हिन्दी के सम्पादकों एवं प्रकाशकों नहीं पाती, पर सम्पादक बन बैठते हैं । मुझे (१) ऐसे की भर्त्सना स्वयं मालवीय जी महाराज के 'धर्मपत्र' में कितने सम्पादकों तथा लेखकों से भेंट हुई जो अपना नाम छपी है, अतएव हिन्दी के सम्पादकों, लेखकों और प्रकाभी शुद्ध नहीं लिख सकते ।" और भी “मुझे ऐसे ऐसे शकों का यह कर्तव्य है कि वे भोजपुरी जी के इस लेख सम्पादक मिले जो केवल अपने ही जान पहचानी (?) के को ध्यानपूर्वक पढ़ें और यदि उनके आरोप उन्हें स्वीकार लेख छापने में समर्थ हो सके और उन्हें ही पुरस्कार भी हों तो उनसे तोबा करें और अगर स्वीकार न हों तो उनका दिलाया। और यह सब अपने गत १३ वर्ष के अनुभव विरोध करें। हम अपनी तरफ़ से केवल यही कहेंगे कि के आधार पर लिखा है।"
उक्त लेख के लेखक डाक्टर साहब तथा सनातनधर्म के ___और अापका यह अनुभव कितना गहरा है, सो भी सम्पादक महोदय दोनों ही व्यक्ति हिन्दी और उसके , सुन लीजिए --
लेखकों तथा सम्पादकों का बहुत अल्प ज्ञान रखते हैं शुरू शुरू में आप ने दैनिक 'विश्वमित्र' में लेख और यह बात उनके नामों तथा उक्त लेख से ही स्पष्ट हो लिखे, उस समय आपको मालूम हुआ कि कितने ही लेखक जाती है, अतएव यह निन्दात्मक लेख उपेक्षा के ही 'रुपये की घुड़दौड़' करके लेखक और ग्रन्थकर्ता बन गये योग्य है।
Printed and published by K. Mittra, at The Indian Press, Ltd., Allahabad,
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com