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सरस्वती
[भाग ३६
विरह के नगारे उर अंतर धुधकारे भये, में पदुमकेर ग्राम में हुआ था। पदुमकेर (पद्मकेलि) ताते मतवारे अँधियारी पेखि यामिनी। चम्पारन-जिला में मोतीहारी से २० मील पूरब एवं
. मिथिला के पुण्यतीर्थ सीतामढ़ी से १४ मील पश्चिम झिल्ली झनकारे पिक-दादुर धुनि डारे 'भुवन',
प्रियतम विदेश कैसे धीर धरै कामिनी। है। सन् १७२३-२४ ई० में वंग-विजयी तुग़लकशाह मारि डारै मदन मरोरि डारै दादुर, से पराजित होकर तिहुत-नरेश हरिसिंहदेव
दबोरि डारै बादल दबाय डारै दामिनी॥ अपने दो कनिष्ठ भ्राताओं मोतीसिंहदेव एवं इन पंक्तियों में मुझे प्रतिभा की झलक मालूम पद्मसिंहदेव के साथ अपनी राजधानी पट्टनपुरी पड़ी और मैं इन पर चिंतन करता रहा। एक दिन को छोड़कर नैपाल-विपिन की ओर भाग गये वार्तालाप के सिलसिले में मित्र दिगंबर जी से ज्ञात थे। हरिसिंहदेव ने नैपाल-विजय कर तराई में हुआ कि भुवन झा से कहीं अधिक श्रेष्ठ कवि उनके स्थित भटगाँव में अपनी राजधानी बसाई, जहाँ पितामह श्री मँगनीराम झा थे, जिनकी कवितायें उनके वंशज १७६९ ई० तक राज्य करते रहे। उनके
और गीत अभी तक चम्पारन, मुजफ्फरपुर की दोनों कनिष्ठ भ्राताओं ने अपने अपने नाम पर ग्रामीण स्त्रियाँ श्रद्धा और प्रेम के साथ गाती हैं। क्रमशः मोतीहारी और पद्मकेलि नाम के ग्राम बसाये। मुझ इतिहास के अकिंचन विद्यार्थी के लिए यह पद्मसिंहदेव का प्राचीन वासस्थान अब भी एक पते की बात थी। एक सप्ताह के भीतर ही मँगन उन्नत टीले के रूप में वर्तमान है। पदुमकेर के के सारे सरस कविता-कुसुमों को संकलित कर उनको स्वर्ण-समय का वह करुण स्मारक 'डीह' अपने जीवन-घटनाओं के सूत्र में उन्हें गूंथने का सम्पूर्ण सुस्वादु चावलों की उत्पत्ति के लिए प्रसिद्ध है। कार्यक्रम प्रस्तुत कर डाला। इस महान कार्य के संपा- कहते हैं, ब्राह्मण-मण्डली के साथ राजा ने वहाँ यज्ञ दन में मुझे मित्र दिगंबर जी से जो हार्दिक साहाय्य किया था। उसके प्रभाव से वहाँ की भूमि सिद्ध हो
और सहयोग प्राप्त हुआ उसके लिए मैं उनका कृतज्ञ गई है। अब भी उस स्थान में उत्पन्न अन्न-द्रव्यों में हूँ। आज उसी प्रयास का फल यहाँ 'सरस्वती' के हविष्य की सुगंध पाई जाती है। निकट ही पाठकों के मनोविनोद के लिए उपस्थित किया 'जरदाहा' नाम का एक प्राचीन सरोवर है, जो लगजाता है।
भग ४ मील तक फैला हुआ है। यह विशाल सरोवर विद्यापति के आश्रयदाता शिवसिंह के समय
का कहा जाता है। इसमें कमल बहुत उत्पन्न श्री मँगनीराम झा का जन्म सन् १६८७ ई० होते हैं।
(क) 'नाचे मोर कारे, पवन हहकारे'—दूसरा पाठ । (ख) पदुमकेर में मुझे ज्ञात हुआ कि मँगनीराम मा
ने १०८ वर्ष तक जीकर संवत् १८५२ में शरीर त्याग किया। श्रीयुत भुटू मिश्र, पंजीकार, कोठा टोल, दरभंगा की पोथियों से भी उपर्युक्त तिथि का समर्थन होता है। कवि का जन्म-पत्र अब अप्राप्य है।
(ग) वाणाब्धिबाहुशशिसम्मितशाकवर्षे,
पौषस्य शुक्लदशमी क्षिति सूनुवारे । त्यक्त्वा स्वपट्टनपुरी हरिसिंहदेवो, दुर्दैवदर्शितपथे गिरिमाविवेश । --देखिए History of Tirhut, pp. 59-69, footnote; Brigg's Ferista Vol. I, pp. 406-7.
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