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संख्या २]
प्रेमचन्द जी की रचना-चातुरी का एक नमूना
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कावस जी। ये बम्बई में संपादक हैं, बड़े मेहनती हैं, लीजिए। यह उत्तर-भारत के एक धनी सेठ की सीधे हैं, संतोषी हैं, पर ग़रीब हैं, इसलिए इनकी स्त्री स्त्री है। वह सुशिक्षिता, अप-टु-डेट और मधुरगुलशन निरन्तर कटुभाषण करती है और बात बात भाषिणी है, पर उसे दाम्पत्य-सुख नहीं प्राप्त है, में व्यङ्गय बोलती है। स्त्री के इस व्यवहार से ये मन क्योंकि उसका पति अपना सारा समय धन कमाने में ही मन खिन्न रहते हैं और अपने एक मित्र की मधुर- लगाता है और उसको बहुत कम समय देता है। भाषिणी स्त्री की ओर आकर्षित होते हैं और कहते हैं- साथ ही शीला को उसमें परस्त्रीगामी होने का भी "गुलशन की जगहशीरी होती तो उनका जीवन कितना सबूत मिलता है। इसलिए वह एक दिन घर से गुलजार होता।" हंस जून सन १९३५ पृष्ठ ३३] निकल पड़ती है। एक बाग़ में अपने और अपने पति
पाठक देखें कि प्रेमचन्द जी के कावस जी के एक परिचित मित्र के साथ मिलती है और क्रोधा'उलझन' के जगतनारायण तो नहीं हैं। क्योंकि वेश में उसके साथ कहीं भी निकल भागने को यद्यपि वे सम्पादक नहीं हैं, स्कूल मास्टर हैं, तैयार हो जाती है और कहती है-"इस समय कोई तथापि उनकी तकशैली, समझ और सूझ ऐसी है कहे तो मैं नरक में भी इसके साथ जा सकती हूँ।" कि बम्बई में जाकर बड़े मज़े में सम्पादक हो सकते (उलझन पृष्ठ ९८) हैं। उलझन के ये जगतनारायण भी बड़े मेहनती उलझन की इस शीला को भी प्रेमचन्द जी हैं, सीधे हैं, संतोषी हैं, पर ग़रीब हैं, इसलिए उनकी बम्बई ले गये। उसका शीला नाम बदल कर शीरी स्त्री मानवती निरन्तर कटुभाषण करती है और रक्खा जो एक प्रकार से शीला का उर्दू रूपान्तर है। बात बात में व्यङ्गय बोलती है। स्त्री के व्यवहार से वे इस बेचारी उत्तर-भारतीय नारी को भी उन्होंने मन ही मन खिन्न रहते हैं और अपने एक मित्र की पारसी बना डाला और एक धनी पारसी के साथ मधुरभाषिणी स्त्री की ओर आकर्षित होते हैं और उसे ब्याह दिया। यह शीरी भी सुशिक्षिता, सोचते हैं-"उन्हें चम्पा जैसी स्त्री मिली होती तो अप-टु-डेट और मधुरभाषिणी है। यह अवश्य है कि उनका जीवन सफल हो जाता।" (उलझन पृष्ठ ४३) यहाँ इसे पति उत्तर-भारत से कुछ भिन्न मिला है।
खेद है कि प्रेमचन्द जी ने 'उलझन' के इस वह पारसी है, इसलिए कुछ भिन्नता होनी ही चाहिए गरीब पात्र को बम्बई ले जाकर भी गरीब ही रक्खा पर प्रेमचन्द जी के साथ बम्बई जाकर पारसी हो
और वहाँ भी उसे स्त्री की कटूक्तियाँ सुनवाई और जाने पर भी सभ्य पारसी के साथ विवाह करके भी, उसके सामने वही उलझनें पेश की जो यहाँ उत्तर- नाम बदल डालने पर भी इस शीरी को अर्थात् भारत में थीं। खद तो फ़िल्म-कम्पनी में काम करने 'उलझन' की शीला को यहाँ उसी समस्या का सामना गये थे, पर इस बेचारे को किसी अमीर दोस्त के करना पड़ा जो उसके सामने उत्तर-भारत में मौजूद साथ किसी दिन सिनेमा भी न दिखलवाया। थी। अर्थात् उसे दाम्पत्य-सुख प्राप्त नहीं है, क्योंकि बम्बई में उन्होंने उसके जीवन में कोई भी ऐसी बात पति उसको बहुत कम समय देता है और उसके नहीं दिखाई जो उसके यहाँ उत्तर-भारत के जीवन परस्त्रीगामी होने का भी सबूत मिलता है, इसलिए वह से भिन्न हो। ऐसी दशा में यदि मैं कहँ कि उन्होंने एक दिन घर से निकल पड़ती है, एक बाग़ में अपने 'उलझन' के इस पात्र को चुराकर अपनी कहानी का और अपने पति के परिचित एक मित्र से मिलती है पात्र बना लिया है तो मुझे ऐसा कहने का सर्वथा और क्रोधावेश में उसके साथ कहीं भी निकल भागने अधिकार है।
को तैयार हो जाती है और कहती है- "मैं तुम्हारे साथ __ अब 'उलझन' के एक स्त्री पात्र शीला को चलूंगी अभी इसी दम।” (हंस जून १९३५ पृष्ठ ४१)
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